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* चतुर्दशम सग *
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प्रतिस्वल्पमहो ह्यायुः शतवर्षादिगोचरम् । विज्ञाय विषयासक्ति को विधत्ते सचेतनः ।।१३३।। इयन्ति मम वर्षाणि संयमेन विना वृया । गतानि मधुना कि तद्ग्रहणे 'काललम्बनम् १३४
शार्दूलविक्रीडितम् यावन्नायुरहो सुदुर्लभतरं संभोयते चाखिन
यावद्रोगजराग्निभित्रपुरिदं पामेब नादह्यते । यावत्स्वेन्द्रियशक्तिरस्ति पदता.देहोद्यम: सम्मति
स्ताद्विश्वहितं चरन्ति निपुणा वृत्तादिभिः सिद्धये ॥१३॥ एवं मोहविधेः क्षयोपशमतः सत्काललब्ध्या वर
निवेदं परमं समाप्य भवभोगाङ्गस्वराज्यादिषु । सर्वानर्थविधायिषु ज्यघकरेल्वेवामलं संयम
ह्यात्तु श्रीजिन एवं चोद्यममघात् करिनाशाय सः ।।१३६।।
साथ शोघ्र ही छोड़ देने के योग्य हैं ।।१३२॥ अहो ! मेरी सौ वर्ष की आयु अत्यन्त प्रल्प है ऐसा जानकर कौन सचेतन प्राणी विषयों में प्रासक्ति करेगा ? अर्थात् कोई नहीं।१३३॥ मेरे इतने वर्ष संयम के बिना ध्यर्थ गये । अब उसके ग्रहण करने में काल व्यतीत करना क्या है ? भावार्थ-प्रब संयम धारण करने में विलम्ब करना उचित नहीं है ।।१३४॥ अहो ! जब तक प्रत्यन्त दुर्लभ संपूर्ण मनुष्यायु क्षीरण नहीं होती है, जब तक यह शरीर घर की तरह रोग तथा वृद्धावस्थारूप अग्नियों के द्वारा सब प्रोर से भस्म नहीं होता है
और जब तक अपनी इन्द्रियों की शक्ति, समर्थता, शरीर का पुरुषार्थ तथा अच्छी बुद्धि विद्यमान है तब तक चतुर मनुष्य सिद्धि के लिये चारित्र आदि के द्वारा संपूर्ण हित कर लेते हैं ।।१३५॥
इस प्रकार मोह कर्म के क्षयोपशम से तथा उत्तम काल लब्धि के द्वारा समस्त अनर्थों को करने वाले एवं विविध पापों के कारणभूत संसार भोग शरीर तथा अपने राज्य प्रादि के विषय में परम वैराग्य को प्राप्त कर श्री पार्श्व जिनेन्द्र ने कर्मरूप शत्रुओं का नाश करने के लिये निमंल संयम प्राप्त करने का ही उद्यम किया ॥१३६॥
१ समस्यापनम् २. न पादह्यते इलिच्छवः ३. विविध पापक रेषु ।