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* श्री पाश्वनाथ चरित. पूर्वोपाजितकर्मदु:खमरणास्त्रातु क्षमा न क्षरणं विज्ञायेति बुधाः कुरुध्वमनिशं धर्म शरण्यं विधेः ॥२४॥
अशरणानुप्रेक्षा अस्मिन्ननादिसंसारे कृत्स्नदुःखाकरेऽशुभे । धर्माहत भ्रमन्त्यङ्गिनोऽखिलाः कर्मणानिशम्। २५॥ द्रव्यक्षेत्रेण कालेन भवभावेन जन्तवः । पञ्चप्रकार संसारं भ्रमन्ति विधिवञ्चिताः ।।६। पाहारकर्मनोकमंगाखिलाः पुद्गलाय 1 गृहोस, ये न यश कसे सन्ति जनश्रये ।।२७, पुद्गलयः शुभरत्र ते कायोऽयं विनिमितः । प्राग्भवे तैस्तवाङ्गान्यनन्तश: खण्डितान्यहो ।२८। असंख्ये खप्रदेशेऽस्मिन् यत्र जातो मृतो न च । कर्मशङ्खलबद्धोऽङ्गी स प्रदेशोऽस्ति जातु न ।।२६। उत्सपिण्यवसर्पिण्योः सर्वस्मिन् समयेऽशुभात् । यत्रोत्पन्नो मृतो नाङ्गो विद्यते समयो न सः ।३०। स्वभ्रतियंग्नदेवेषु यावद्द्मवेयकं च या । न गृहीता न मुक्ता सा योनिजोंवर्न भूतले ॥३१॥ मिथ्यादिप्रत्यय व रागद्वेषादिजः सदा । बध्नात्याखिला जीवा अनन्ताकर्मपृद्गलान् ।३२ भ्रमन्तोऽत्रभवारण्ये कर्मारिभिर्गलेधृताः। भुञ्जन्यमन्तदुःस्त्रानि शमीशं न भजन्त्यहो ।।३३।। चिो जडात्मनां भाति सुखदुःखद्वयं भवे । न सुखं 'ह्यश मात्रं च सर्व दुःखं विदेकिनाम् ३४॥
समस्त दुःखों की खानस्वरूप इस अशुभ अनादि संसार में धर्म के बिना समस्त प्राणो कर्मोदय से निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ।।२५।। कर्मों से ठगे हुए प्रारणी द्रव्य क्षेत्र काल भव और भाव के भेद से पांच प्रकार के संसार में भ्रमण करते हैं ॥२६ प्रथिवी पर जो समस्त पुद्गल हैं उनमें से प्राहार, कर्म और नोकर्म के रूप में इस जीव ने जो न प्रहरण किये हों और न छोड़े हों ऐसे पुद्गल तोनों लोकों में नहीं हैं ।।२०।। अहो ! इस जगत् में जिन शुभ पुद्गलों से तेरा यह शरीर रचा गया है पूर्वभव में उन्हीं पुदगलों से अनन्त वार तेरे शरीर खण्डित हुए है ।।२८।। कर्मरूपी शृङ्खला से बन्धा हा यह प्राणी आकाश के असंख्य प्रदेशों में से जिस प्रदेश में न उत्पन्न हुया हो और न मरा हो वह प्रदेश कभी नहीं है ॥२६॥ पापोवय से उत्सपिरणी और प्रवपिणी के सभी समयों में से जिस समय में यह जीव न उत्पन्न हुआ हो और न मरा हो वह समय नहीं है ।।३०।। नरक तिर्यञ्च मनुष्य और देवों में ग्रंबेयक पर्यन्त यह योनि नहीं है जो लोक में जीवों के द्वारा न ग्रहण की गई हो और न छोड़ो गई हो ॥३१॥ मिथ्यात्व प्रादि प्रत्ययों तथा रागद्वेषादि से उत्पन्न भावों के द्वारा समस्त जीव इस जगत् में अनन्त कर्म पुद्गलों को बांधते रहते हैं ॥३२॥ अहो ! कर्मरूपी शत्रुओं ने जिनका गला पकड़ रक्खा है, ऐसे संसाररूपी वन में भ्रमण करते हुए जीव अनन्न दुःख भोगते हैं, सुख का अंश भी प्राप्त नहीं करते ।।३३।। अज्ञानी जनों के चित्त में ऐसा भाव रहता है कि संसार में सुख दुःख दोनों हैं परन्तु ज्ञानी १.गुमाग.।