________________
- पञ्चदश सर्ग .
[ १७ इति मत्वा भवं त्यक्त्वा कृत्स्नाशर्माकरं बुधाः । यत्नेन तपसा मोक्षं साधयध्वं सुखार्णवम् ॥३५॥
शार्दूलविक्रीडितम् श्वभ्रे दुःखमनारतं घनतरं तिर्यग्गतौ केवलं
मानुष्येऽपि वियोगशोकजनितं दारिद्रघरोगादिजम् । देवत्वेऽपि सुराङ्गनाच्यवनजं दाहप्रदं मानसं मत्वेतीह जनाः शिवं सुखनिधि यत्नाद् भजध्वं द्रुतम् ।। ३६।।
संसारानुप्रेक्षा एको जातो मृतश्चक: सुखी दुःखी धनेश्वरः । निर्धनो रोगवाने को भ्रमत्यत्र 'चतुर्गतीः ।।३।। मिथ्याहिंसान्नान्यस्त्रीचौर्य रौबादिकर्मभिः ।उपायनो जन: श्वभ्रं यात्येकोऽत्रासुखाकरम् ।३८। मायाकौटिल्य शोकातंत्र्यानाचै रघमञ्जसा । अयित्वा बजत्येकस्तियं म्योनीरनेकशः ॥३६॥ हचिद त्ततपोयोगापूजायमादिभिः
। पुरुष प्रशारेक: स्वर्ग सर्वसुखाएंवम् ॥४०॥ जनों के चित्त में यह भाव रहता है कि यहां सुख अंशमात्र भी नहीं है सब दुःख ही दुःख है ॥३४।। ऐमा जानकर हे विद्वज्जन हो! समस्त दुःखों की खानस्वरूप संसार को छोड़ कर यत्नपूर्वक तप के द्वारा सूख के सागरस्वरूप मोक्ष की साधना करो ॥३५॥ नरक में निरन्तर तीव्रतर दुःख है, तिर्यञ्चगति में मात्र दुःख है, मनुष्यगति में वियोग और शोक से उत्पन्न तथा दरिद्रता और रोग आदि से होने वाला दुःख है और देवपति में भी देवाङ्गनामों के च्युत हो जाने से उत्पन्न, दाह को देने वाला मानसिक दुःख है ऐसा जान कर हे ज्ञानोजन हो ! शोघ्र ही सुख के भाण्डारस्वरूप मोक्ष की उपासना यत्न से करो ॥३६॥
( इस प्रकार ससार अनुप्रेक्षा का चिन्तबन किया ) यह जीव अकेला उत्पन्न होता है, अकेला मरता है, अकेला सुखी होता है, अकेला दुःखी होता है, अकेला धनपति होता है, अकेला निधन होता है, अकेला रोगी होता है और अकेला ही चारों गतियों में भ्रमण करता है ।।३७१। यह जीव इस जगत में मिथ्यादर्शन, हिमा, सत्य, परस्त्री सेवन, चोरी तथा कर प्रादि कर्मों से पाप का उपार्जन कर अकेला ही दुःख की खान स्वरूप नरक में जाता है ।।३।। मायाचार, कुटिलता, शोक, और प्रातध्यान आदि के द्वारा पाप का संचय कर अकेला ही अनेक प्रकार की तिर्यञ्चयोनियों में जाता है ।।३६॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र और तए के योग से तथा दान पूजा और इन्द्रियदमन प्रादि के द्वारा पुण्य कर अकेला ही समस्त सुखों के सागरस्थरूप स्वर्ग को प्राप्त
१. र दुर्गना: खः ।