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• पञ्चदश सर्ग *
[ १५ खगमय॑सुराधीशचण्डिकाव्यन्तरादयः । वातारो जातु न नू.णां मणिमन्त्रोषधादयः ।।१७। परमेष्ठिवषादीनां शरणं ये वजन्यहो । सेऽचिरात् स्युभवत्रस्ता जन्ममृत्युजराच्युताः ॥१८॥ क्षेत्रपालौषधादीनां यान्ति ये शरणं शठाः । तेऽधभारेण रागार्ता यमास्ये संपतन्त्य हो ॥१६॥ यया पोतच्युतः पक्ष्यशरण्योऽधौ च मज्जति । तथा धर्मच्युतः प्राणी श्वभ्रानो पापभारत: ।२०। मणिमन्त्रौषधाचविश्वर्देवनराधिपः ।यमेन नीयमानोऽङ्गीर क्षणं त्रातुन शक्यते ॥२१॥ इति ज्ञात्वा बुधः कार्याः शरण्याः परमेष्ठिन: । तपोधर्मादयश्चात्र दुःकर्मयमहानये ।।२२।। शरण्यो मुनिभिः कार्यों नित्यो मोक्षः सुखार्णवः । दृश्चित त्तादयस्वातारो विधेया: शिवप्रताः ॥२३॥
__ शार्दूलविक्रीडितम् नेन्द्रा नैव खग। न म्यन्तरगरणा नेयात्र चक्राधिपा
मन्त्रश्चौषधराशयश्च सकला धर्म विना देहिनः । पुरुषों को संसार से बचाने के लिये शरण्यभूत हैं ॥१६॥ विद्यापर, मनुष्य, इन्द्र, चण्डिका, व्यन्तर आदि देव तथा मरिण मंत्र औषध प्रादि पदार्थ मनुष्यों के कभी रक्षक नहीं हैमृत्यु से कोई बचाने वाले नहीं हैं ॥१७॥ अहो ! संसार से भयभीत हुए जो मनुष्य पञ्चपरोही तथा भारत की सरया को प्राप्त होते हैं वे शीघ्र ही जन्म मृत्यु मोर जरा से च्युत हो जाते हैं-इनके चक्र से बच जाते हैं ।।१८॥ जो मूर्ख क्षेत्रपाल तथा औषध प्रावि की शरण को प्राप्त होते हैं वे पाप के भार से रोग पीडित होते हुए यमराज के मुख में पड़ते हैं ॥१६।। जिस प्रकार जहाज से छूटा हुअा पक्षी शरण रहित हो समुद्र में डूबता है उसी प्रकार धर्म से छूटा हुमा प्राणी पाप के भार से नरकरूपी समुद्र में डूबता है ॥२०॥ यम के द्वारा ले जाया जाने वाला प्राणी मरिण, मंत्र औषध धन प्रादि पदार्थों तथा समस्त देव और राजाओं के द्वारा क्षणभर के लिये भी नहीं बचाया जा सकता ॥२१॥ ऐसा जान कर विद्वज्जनों को दुष्कर्म तथा यम मृत्यु को नष्ट करने के लिये परमेष्ठियों को ही शरण्य रक्षक बनाना चाहिये ॥२२॥ मुनियों को नित्य तथा सुख के सागर स्वरूप मोक्ष को ही शरण्य-रक्षक बनाना चाहिये । इसी प्रकार मोक्ष को देने वाले दर्शन ज्ञान तथा चारित्र प्रावि को रक्षक बनाना चाहिये ॥२३॥ पूर्योपार्जित कर्मोदय से होने वाले दुःखरूप मरण से प्राणियों को क्षणभर बचाने के लिये धर्म को छोड़ कर न इन्द्र समर्थ हैं न विद्याधर, न व्यन्तरगरण, न चक्रवर्ती, न मंत्र, न प्रौषधराशि-सभी असमर्थ हैं-ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो | कर्म से सुरक्षित रखने वाले धर्म को ही निरन्तर रक्षक बनायो ॥२४॥
( इस प्रकार प्रशरण अनुप्रेक्षा का चिन्तवन किया ) १. यममुखे २, प्राणी।