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* पञ्चदशम सर्ग *
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पञ्चदशः सर्गः रागादिदोषसंत्यक्तं संवेगादिगुणामृतम् । संवेगाय स्तुवे पार्श्वमनन्तगुणवारिधिम् ।।१।। चिन्तयत्पथ देवोऽसौ संवेगगुणवृद्धये । अनुप्रेक्षा द्विषड्भेदा वैराग्यशिवमातरः ॥२॥ प्रनित्याशरणे संसारकत्वान्यत्वमेव हि । अशुच्यासवनामानौ संवरो निर्जरा तथा ॥३॥ लोकोऽपि दुर्लभा बोधिधर्मश्चेति' द्विविधाः । अनुप्रेक्षा बुधया रागारिमयकारिकाः ।।४।। अनित्यानि शरीराणि विद्युत ल्यानि देहिनाम् । क्षणादेव क्षयं यान्ति विषाम्न्यारिमृत्युतः ।।५।। चञ्चलं यौवनं प्रासदर्भाग्रबिन्दुसग्निभम् । गच्छेन्नाशं क्षणान जीवितव्यं रुजादिना ।।६।। वेश्येव चपला लक्ष्मीजंगत्प्राऽिशुभाकरा । दुःप्राप्या दुर्धरा कुर्यात्केचिन रति सदा ।।७।। सुग्वं वैषयिक पुसा विश्वानर्थनिबन्धनम् । दुःप्रापं दुःखपूर्व स्याद्गन्धर्वनगरोपमम् ।।८।। राज्यं रजोनिभं चक्रिणामयीहासुखाकरम् । बहुचिन्ताकर छायोपमं धर्मादिनाशकृत् ।।६।।
पञ्चदश सर्ग जो रागादि दोषों से रहित हैं और संवेगादि गुणों से सहित हैं, अनन्त गुरणों के सागरस्वरूप उन पार्श्वनाथ भगवान् को मैं संवेग प्राप्ति के लिये स्तुति करता हूँ ॥१॥
अथानन्तर वे पार्श्वनाथ देव संवेग गुरण की वृद्धि के लिये बारह अनुप्रेक्षामों का चिन्तबन करने लगे क्योंकि वे अनुप्रेक्षाए' वैराग्य की उत्पत्ति के लिये उत्तम मासास्वरूप हैं ॥२॥ अनित्य, प्रशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, मानव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्म ये बारह अनुप्रेक्षाएं विद्वज्जनों के द्वारा मानने योग्य हैं। ये सभी अनुप्रेक्षाए रागरूपी शत्रु का क्षय करने वाली हैं ।।३-४॥
प्रारिषयों के शरीर विजली के समान अनित्य हैं तथा विष, पग्नि, सर्प, शत्रु और मृत्यु के द्वारा क्षणभर में ही क्षय को प्राप्त हो जाते हैं ॥५॥ यौवन प्रातःकाल के राम के अग्रभाग पर स्थित प्रोस की दून्द के समान चञ्चल है। और जीवन रोग प्रादि के द्वारा क्षरणार्धभाग में नाश को प्राप्त हो जाता है।॥६॥ लक्ष्मी बेश्या के समान चपल है, समस्त जगत् इसे चाहता है, अशुभ की खान है, कठिनाई से प्राप्त होती है, बड़ी कठिनाई से रखी जाती है और किन्हीं में यह सदा प्रीति नहीं करती है ॥७॥ पुरुषों का विषय सम्बन्धी सुख समस्त अनर्थों का कारण है, दुष्प्राप्य है, दुःख का कारण है और गन्धर्व नगर के समान है ।।८। इस जगत् में चक्रवतियों का राज्य भी धूलि के समान है, १. द्वादश विदः।