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* चतुर्दशम सर्ग *
[ १७७ प्रतो बिचार्य हे मित्र मनसेह' परत्र च यद्धितं कुरु तच्छीनं हत्वा स्वमतदुर्मदम् ।।२।। इत्यादि तद्वचः श्रुत्या पूर्ववैरानुबन्धनात् । निजपक्षानुरागिरवादीर्घसंसारयोगतः ॥३॥ दुष्टप्रकृतितो वाघीः कोपाग्निज्वलितोऽवदत् । पराभवसि मामेव कुमार त्वं मुहुर्मुहुः ।।१४।। तस्मिन् क्रोधातुरः प्राप्य सशल्यो दुःकरां मृतिम् । बभूध हीनदेवोऽसौ ज्योतिलोंके कुमार्गगः ।।१।। तपसा कुत्सितेनाहो यामी निर्जरोऽभवत् । कुर्वन्ति ये तपो ननं तेषां कि दुर्लभ ततः ॥६६|| ततोऽ'तकृपया ताभ्यां खण्डिताम्यां जिनाधिपः । ददौ पश्चन मस्कारान् कर्णे विश्वहितंकरान् ।।१७। धर्मादिश्रवणेनामा कृत्स्नदुःखान्तकारिणः । गुरुपञ्चकनामोत्थानस्वर्गमुक्तिकरायरान् ॥६॥ श्रुत्वा तो तानमस्कारान् धर्मादिसूचकं वचः । प्राप्य चोपशमं चित्त शुभध्यानेन संमृतौ ॥६॥ सतो नागो नमस्कारफलेनामरनायकः । पृथु यलङ्कतः सोऽभूद धरणेन्द्रो महद्धिकः ।१०० नागी पुण्यफलेनास्य पद्यावती व्यभूत्तदा । दिव्य देहासुखानीला जिनशासनवत्सला |१.१॥
कर तेरे लिये इस लोक तथा परलोक में जो हितकारी हो उसे अपने मत का मिथ्या गर्व नष्ट कर शीघ्र ही संपन्न कर ॥१२॥
इत्यादि उनके वचन सुनकर पूर्व और के संस्कार से, अपने पक्ष के अनुराग से, दीर्घ संसार के योग से अथवा दुष्ट स्वभाव से यह मूर्ख क्रोधाग्नि से जलता हुप्रा बोला अरे कुमार ! तू बार बार मेरा ही तिरस्कार कर रहा है ।।६३-६४।। पार्श्व जिनेंद्र पर क्रोध से पीडित हुमा बह तापस शल्य सहित कुमरण कर ज्योतिर्लोक में कुमार्गगामी हीन देव हमा
५अहो ! खोटे तप से भी जब तापस देव हो गया तब जो जैन-जिन प्रतिपावित तप करते हैं उनके लिये दुर्लभ क्या है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥६६॥
तदनन्तर जिनराज ने उन खण्डित सर्प सपिणी के लिये कान में अत्यधिक दयाभाव से सर्वहितकारी पञ्चनमस्कार मंत्र दिया ॥१७॥ धर्म आदि को सुनने के साथ समस्त दुःखों का अन्त करने वाले, पञ्च परम गुरुओं के नाम से उत्पन्न स्वर्ग तथा मुक्ति को करने वाले उन श्रेष्ठ नमस्कारों को और धर्मादि की सूचना देने वाले अन्य वचनों को सुनकर वे सर्प सपिणी चित्त में उपशमभाष को प्राप्त कर शुभ ध्यान से मरे ॥९८-९९ तदनन्तर नमस्कार मंत्र के फल से मर कर सर्प बहुत भारी लक्ष्मी से अलंकृत, महान ऋद्धियों को धारण करने वाला धरणेन्द्र नामक इन्द्र हुमा और सपिणी पुण्य के फल से इसकी पद्मावती नामको देवी हुई । उस समय वह पनावती दिव्य-वक्रियिक-सुन्दर शरीर से सहित थी, सुख से सहित थी तथा जिन शासन से स्नेह रखने वाली थी ॥१००-१०१।।
१ मनसाहब. ग. २. वा अधी: मूर्खः ३. दिव्यदेहासुम्बातीता ग.