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* श्री पार्श्वनाथ चरित.
पञ्चपावकमध्यस्थ गजारूढो जिनेश्वरः । प्रागस्य सत्समीपेऽस्थादनस्वनमनादरः ।।६१।। तदसम्मानमेवासाववधार्या
तापसः । सदा कोपारिणा प्रस्तो मनस्येवं विचिन्तयेत् ।६२। कुलीनोऽहं तपोवृटो वा पितास्य गुरुर्महान् । दीक्षितो धीमतां मान्यताएसनतपारगः ॥६३।। एवम्भूतस्य मेऽकृत्वा नमस्कार कुमार्गगः । कुमारोऽयं मदाविष्टः स्थितवान्मम सन्निधौ' ६४ इस्पन्स:क्षोभमासाद्य प्रशान्तेऽग्निधये पुनः । निक्षेप्तु स्वयमेवोच्चकत्क्षिप्य परशु बलात् ॥६५॥ छिन्वन् काष्ठमसो मूखों निषिसः श्रीजिनेशिना। महियुग्मं तदन्तःस्थं विशाय स्वावधिश्विषा ।६६। प्रस्यान्तरे बराकं हि नागयुग्मं प्रवियते । इति मा छेदयस्वेदमिति प्रोक्तो मुहमुहुः ।।६।। श्रुत्वेति तदवः पापी भूस्खा कोषाग्निमस्मितः । प्राग्जन्मायातवरेण छेदयामास तत्क्षणम् ॥६८|| नागो नागी च तदधाता द्विधा खण्ड तदागमत् । तो निरीक्षय कुमारः कामोदरीद Iii महं गुरुस्तपस्वीति मुषा गर्व स्वमुदहन । महापापासवस्ते तस्माद्भवत्येव न संशयः ।।७।।
मोर पा रहे थे तब उन्होंने पञ्चाग्नि के मध्य में स्थित अपने शत्रु को देखा। उस समय वे हाथी पर सवार थे। उस तापस के पास प्राकर उसे नमस्कार किये बिना हो वे मनावर से खड़े हो गये ॥६०-६१॥ यह तो मेरा अपमान ही है ऐसा निश्चय कर वह तापस शीघ्र ही क्रोध रूपी शत्रु से प्रस्त हो गया और मन में ऐसा विचार करने लगा।६२।
में कुलोन हूँ, तप से बड़ा हूँ, इसके पिता तुल्य हूँ, महान गुरु हूँ, दीक्षित हूं, विद्वसानों का मान्य हैं और तापस के व्रत का पारगामी हूँ। इस प्रकार की विशेषता से सहित होने पर भी यह कुमार्गगामी अहंकारी कुमार मेरे लिये नमस्कार न कर मेरे पास बड़ा है ॥६३-६४॥ इस प्रकार वह मन में क्षोभ को प्राप्त हो रहा था । इसी के बीच उसकी अग्नि का समूह शान्त हो गया जिससे उसमें डालने के लिये वह मूर्ख स्वयं बलपूर्वक फरसा ऊपर उठाकर लकड़ी काटने लगा। यह देख अपने प्रदधिज्ञानरूपी ज्योति के द्वारा उस सकड़ी के भीतर स्थित सांपों के युगल को जान कर श्री पार्श्व जिनेन्द्र ने उसे मना किया ॥६५-६६। इसके भीतर बेचारे सांपों का एक युगल विद्यमान है इसलिये इसे मत काटो। ऐसा उन्होंने बार मार कहा ॥६७।। उनके इन वचनों को सुनकर पापी तापस ने क्रोध रूपी अग्नि से भस्म होकर पूर्व जन्मों से चले आये वर के कारण उस लकड़ी को तत्काल काट डाला ॥६॥ लकड़ी के फटने से सर्प और सपिरणी उसी समय दो खण्ड को प्राप्त हो गये । उन्हें देख कुमार ने दयावश उस तापस से कहा ॥६६॥ 'मैं गुरु है', 'मैं सपस्थी हूँ इस प्रकार का पर्व तू व्यर्थ ही धारण कर रहा है । इस गर्व से तुझे पापों का १. सनिधिम् ग० २. मर्पयुगलं ।