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चतुर्तास
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रत्नद्वीपस्तथा वयं बरा लक्ष्मी सरस्वती । 'सुरभि: "सौरभेयश्च गृहारत्नं महानिधिः १४६८ हिरण्यं कल्पवल्ली व जम्बुबुको हि पक्षिराट् । सिद्धार्थपादपः सौषमुनि तारका प्रहाः ॥ ५० ॥ प्रातिहार्याणि दिव्यानि मङ्गलान्यपराण्यपि । इत्यादिलक्षणान्यस्य सर्वाष्यष्टोत्तरं शतम् । ५१ ।। दिव्यदेहे विभोः सन्ति व्यञ्जनान्यपराण्यपि । श्रागमोक्तानि रम्याणि नवैव हि शतान्यपि ॥५२॥ पुदुमला दिव्यरूपा ये शुभाः सन्ति जगस्त्रये । तानादायास्य मन्येऽङ्ग वेवसा रचितं मुदा । ५३ । रूपलावण्यसौभाग्यहक्चिदादिगुण व्रजं । शतसम्बत्सर । युष्कोऽयपुञ्ज" इव स व्यभात् । ५४० ग्रथ स प्राक्तनः सिंहो भुक्त्वा दुःखमधापितम् । निःसृत्य नरकाद्दोषं भ्रमिरवा कुभवाटवीम् । ५५० सस्थावरज घोरां महीपालपुरेऽभवत् । नुपालभूभुजः सूनुर्महीपालाभिषः शुभात् ||५६ ॥ ब्राह ्मम्या: पिता कदाचित्स पट्टराज्ञीवियोगतः । प्राषये तापसः सेव्यं तपः पञ्चाग्निगोचरम् । ५७।। प्राश्रमादिवने शठमानसः । पञ्चाग्निसाधनं कुर्वन्नास्ते स कष्टपीडितः ।। ५८ ।। नवयौवनः । क्रीडार्थ स्वबलेनामा पारवनाथो वनं ययो ॥५६॥ भूदेवकुमारकैः । क्रीडामुदा पुरीमागच्छम् दृष्ट्वा शात्रवं निजम् । ६००
तस्मादागस्य
षोडशाब्दावसानेऽच कदा कोडाथो यथेष्ट च
प्रातिहार्य तथा अन्य मङ्गल द्रव्य इन्हें भावि लेकर एक सौ माठ लक्षण भगवान् के सुन्दर शरीर में विद्यमान ये । इनके प्रतिरिक्त श्रागम में कहे हुए नौ सौ सुम्बर व्यञ्जन भी सुशोभित हो रहे थे ।।४५-५२ ।। तीनों जगत् में जो सुन्दर और शुभ पुद्गल हैं उन्हें लेकर ही विधाता ने हर्षपूर्वक इनका शरीर रचा था ऐसा जान पड़ता है ।।५३॥ जो रूप, लाभण्य, सौभाग्य, दर्शन तथा ज्ञान प्रावि गुणों के समूह से सहित थे सभा सो वर्ष प्रमाण जिनकी श्रायु थी ऐसे वे पार्श्व प्रभु पुण्य समूह के समान सुशोभित हो रहे थे ।। ५४ ।।
अथानन्तर वह पहले का सिंह पाप के द्वारा प्रदत्त दुःख को भोगकर नरक से निकला और जस स्थावर जोवों की भयंकर भवावलीरूपी प्रदवी में चिरकाल तक भ्रमरण कर पुण्योदयसे महोपाल पुर में राजा नृपाल का महीपाल नामक पुत्र हुआ ।।५५-५६ ।। वह पार्श्व जिनेन्द्र की माता ब्राह्मी का पिता था। कदाचित् अपनी पट्टरानी के वियोग से उसने तापसियों के द्वारा सेवनीय पञ्चाग्नि नामका सप ग्रहण कर लिया ।। ५७ ।। उस सप के कारण वह मूर्ख प्राश्रमादि के वन में मा गया और पञ्चाग्नि तप करता हुआ कष्ट से पीडित रहने लगा ॥५८॥
तदनन्तर सोलह वर्ष समाप्त होने पर एक समय नव यौवन को धारण करने वाले पारखंनाथ क्रीडा करने के लिये अपनी सेना के साथ वन को गये ।। ५६|| पश्चात् राजाओं और देव कुमारों के साथ इच्छानुसार क्रीडा कर क्रीडा के हर्ष से हर्षित होते हुए जब वे नगरी की १. गौः २ वृषभ: ३. नक्षत्राणि ४. पुष्यराशिरिब ५. स्वसैन्येन सह ।