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* त्रयोदशम सर्ग -
[१७ धर्मानास्ति सुरक्षको भवभयाद्धर्मस्य वीज कृपा
धर्मे चित्तमहं दधेऽप्यनुदिनं हे धर्म मेऽवं हर ।।१०।।
मन्दाक्रान्ता विश्वेन्द्रार्यो गुणगणनिधिमक्तिकान्तकभर्ता
बन्यो भव्यः प्रकटितवृषो मिणा लोकमध्ये । शर्माधिः संस्तुत इह मया पार्श्वनाथश्च दद्याद्
घ्यातो नित्यं स्वपरमगुणानाशु कारुण्यतो मे ॥१०॥ इति श्रीभट्टारक श्रोसकलकीतिविरचिते श्रीपार्श्वनामचरित्र जिनेन्द्र मण्डनानन्दनाटकवर्णनो नाम त्रयोदशः सर्गः। के भय से रक्षा करने वाला नहीं है, धर्म का बीज क्या है, मैं धर्म में प्रतिदिन चित्त लगाता हूँ, हे धर्म ! मेरे पाप को हरो॥१०॥
जो समस्त इन्द्रों के द्वारा पूज्य है, गुगसमूह के भाणार है, मुक्तिरूपी स्त्री के एक स्वामी हैं, भव्य जीवों के द्वारा बन्दनीय हैं, लोक के मध्य में धर्मात्मानों के लिये जिन्होंने धर्म प्रकट किया है, जो सुख के सागर हैं और मैंने यहां नित्य ही जिनकी स्तुति तथा ध्यान किया है वे पार्श्वनाथ भगवान् व्याकर मेरे लिये शीघ्र ही अपने उत्कृष्ट गुण प्रदान करें ॥१०६।।
____ इस प्रकार भट्टारक भी सकलकोति द्वारा विरचित श्री पानाप चरित में जिमेना पार्श्वनाथ को प्राभूषण धारण करने तथा मानन्द नाटक का वर्णन करने वाला तेरहवां सर्ग समाप्त हुमा ॥१३॥