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* भी पार्श्वनाथ चरित - अध्वमुच्छालयस्ताः झे नटन्तीदर्शयन्पुन: । अदृश्यास्ता: क्षणात् कुर्वन् सोऽभून्माहेन्द्रजालिकः । इत्यादिननैश्विनिरौपम्यमनोहर: । प्रेक्षकारणां तदा शकः परं शर्म व्यजीजनत् ॥६६॥ विश्वसेन नृपः साद देव्या बन्धुजनस्तराम् ।प्रीतिमायाति साश्चर्यो दृष्ट्वा तन्नाट घमूजितम् ।। नयतीति स्वपाल यो भव्यानतो हि सार्थकम् । प्रस्य चकुः सुराः पार्श्व नाम पित्रो: प्रसाक्षिकम् ।। कृत्वेति जन्मकल्याणं धात्रीः सुरकुमारकान् । तयोवेषकतश्च नियोज्य देवकन्यकाः ।।१०२।। स्वभक्रया परिचर्याय कृतकार्याः सुराधिपाः । उपाय॑ बहुधा पुण्यं प्रजग्मुः स्वस्वमा त्रयम् । १०३
मालिनी इति सुकृतविपाकाज्जन्मकल्याणमाप, परमनिखिलभूत्या सोऽमरेन्द्र जिनेन्द्रः । अखिलसुखनिधानं शर्मकामा विदित्वे-तिविशदचरणोधंधमंमेकं भजध्वम् ।।१०४।।
शार्दूलविक्रीडितम् धर्मः शर्मपरम्परार्पणपरो धर्म श्रिता शानिनो
धर्मणाशु किलाप्यते जिनपद धर्माय भक्त्या नमः । उछाल कर कभी प्राकाश में नृत्य करती हुई दिखाता था और कभी क्षणभर में उन्हें महत्या कर देता था। इस प्रकार वह जादूगर हुमा या II इत्यादि नाना प्रकार के अनुपम और मनोहर नृत्यों के द्वारा उप्त समय इन्द्र वर्शकों को अत्यधिक सुख उत्पन्न कर रहा था | राजा विश्वसेन, वेदो तथा बन्धुजनों के साथ उस श्रेष्ठ नाटक को देखकर प्राश्चर्ययुक्त होते हुए प्रीति को प्राप्त हुए थे ॥१.०॥ जो भव्यजीवों को अपने पास में ले जाता है वह पार्श्वनाथ है इस प्रकार वेवों ने माता पिता के समक्ष देवों ने उनका पाश्वं' यह सार्थक नाम रक्खा ॥१०१।। इस प्रकार इन्द्र, जन्मकल्याणक करके धायों को, उन उन वेषों को धारण करने वाले देवकुमारों को और स्वकीय भक्तिवश परिचर्या सेवा में निपुण देवकन्याओं को नियुक्त कर तथा बहुत भारी पुण्योपार्जन कर अपने अपने स्थानों पर चले गये ।।१०२-१०३॥
इस प्रकार पुण्योदय से वे जिनेन्द्र समस्त उत्कृष्ट विभूति के साथ जन्म कल्याणक को प्राप्त हुए थे ऐसा जानकर हे सुख के अभिलाषीजन हो ! निर्मल चारित्र के समूह से समस्त सुखों के निधानभूत एक धर्म की प्राराधना करो ॥१०४॥ धर्म सुख सन्तति के समर्पित करने में तत्पर है, ज्ञानी जन धर्म को प्राप्त होते हैं, धर्म के द्वारा शीघ्र ही जिवेन का पद प्राप्त होता है, धर्म के लिये भक्तिपूर्वक नमस्कार है, धर्म से बढकर दूसरा संसार