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* श्री पार्श्वनाथ चरित. एवं दशसहोत्पन्नातिशयसंयुजे' नमः । अन्यामितगुणायैव नमस्ते विश्वदशिने ॥३७॥ भवन्तमित्यभिष्टुस्य देव नाशास्महे वयम् । सर्व त्रैलोक्यसाम्राज्यं तत्र निर्लोभिनोऽखिले ॥३८।। किन्तु देहि त्वमसालकमक्ष सिसो समाघि र शुभति त्वद्गुणान् द्र तम् ॥३६॥ बह्वधा प्रार्थनया कि या विधेयका सुनिर्भराम् । भक्ति त्वयि समस्तं सा स्वाभीष्टं नः करिष्यति ।४०। अन्मकल्याणकस्तुत्यादौ पूर्णे सति सोत्सवाः । भूयो मति हि शका वाराणसीगमने व्यधुः ।।४।। तथैव प्रहता भेयस्तथोक्ता जयघोषणाः । तथवैरावतस्कन्धे स्वाक्षारूढं जिन व्यघात् ।।४२।। जयदुन्दुभिनिर्घोषीत त्य महोत्सवैः । नमोऽङ्गणं समुत्पत्य द्रामाजग्मुः सुराः पुरीम् ।।४३।। तामारुध्य पुरीं विश्वगनीकानि सुरेशिनाम् । देवा देव्यश्च ख वीथीनं तस्थुः स्ववाहनः ।।४४।। ततो जिनेन्द्रमादाय देवैः कतिपयैः समम् । स विवेश नृपागारं पराद्धर्ष मणिमण्डितम् ॥४५॥ तत्रानेकमहारत्ननिबद्ध श्रीगृहाङ्गणे । हैमसिंहासने देवं सौधर्मेन्द्रो न्यबीविशत् ।।४६।।
अपरिमित गुणों से सहित तथा सर्वदर्शी हैं प्रतः आपके लिये नमस्कार हो ॥३७॥ हे देव! इस प्रकार प्रापकी स्तुति कर हम उसके फलस्वरूप तीन लोक का सम्पूर्ण राज्य नहीं चाहते हैं पयोंकि हम समस्त सांसारिक पदार्थों में निर्लोभी है किन्तु हे विभो ! पाप हमें दुःखदायक कर्मों का भय, रत्नत्रय , समाधि-वित्त की स्थिरता, सुमरण-सरलेखमा में और शीघ्र ही अपने गुण वें ॥३८-३६॥ अथवा बाहत प्रार्थना से क्या लाभ है ? प्राप अपने पाप में सातिशय एक भक्ति ही वे दीजिये-मेरी सुदृढ भक्ति पाप में बनी रहे ऐसा कर बीजिये वह एक भक्ति ही हमारे समस्त मनोरथ सिद्ध कर देगी ॥४०॥
इस प्रकार जन्मकल्याणक सम्बन्धी स्तुति प्राधि के पूर्ण होने पर उत्सवों से सहित इन्द्रों ने पुनः वाराणसी जाने का विचार किया ॥४१॥ उसी प्रकार भेरियां बजाई गई उसी प्रकार जय जयकार को घोषणाएं की गई और उसी प्रकार इन्द्र ने ऐरावत हाथी के कन्धे पर जिनबालक को अपनी गोद में प्रारुल किया ॥४२॥ जय मेरियों के जोरदार शब्बों, गीतों, नृत्यों तथा महोत्सवों से प्राकाशाङ्गण को लांघकर देव शीघ्र ही वाराणसी मगरी में प्रा पहुंचे ॥४३॥ देवों की सेनाएं, देव और देवियां-सभी लोग अपने अपने वाहनों द्वारा चारों ओर से उस नगरी को, आकाश को, गलियों को तथा बन को रोक कर स्थित हो गये ॥४४॥
तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान को लेकर कुछ देवों के साथ श्रेष्ठ मरिणयों से सुशोभित राज भवन में प्रवेश किया ॥४५॥ वहां उसने अनेक महारत्नों से खचित श्री
१. संपुरणे ख० ग० २. स्तुत्पादिपूणे स. ग. 1