________________
[ १६३
* त्रयोदशम सर्ग
संप्रमोदमयं विश्वमित्यालोक्य शचीपतिः
॥६७॥
| जन्माभिषेक सादृश्यमत्यर्थ कौतुकेरितः स्वं प्रमोद परां भक्ति स्वानुरागं प्रकाशयन् | सार्धं देवं मनोवृति प्रारब्धानन्दनाटकम् ||६६ ॥ १६६।। वृत्तारम्भे तदेन्द्रस्य सज्जो गीतचयो महात् । गन्धर्वैस्तद्विधानज्ञेस्तद्योग्यवाद्यवादनः प्रेक्षका विश्वसेनाच्चाः सकलत्राः सबान्धवाः । जिनेन्द्र ेण समं तस्थुर्नाटकेऽस्मिस्तदीक्षितुम् ।। ७० ।। प्रादौ समवतारं कृत्वा त्रिवर्गफलप्रदम् | जन्माभिषेकसंबद्ध प्रायुक्त'नं मुदा हरिः ॥७१ । नदावतार संदर्भमधिकृत्य जगद्गुरोः | ताण्डवारम्भमेवासाग्रही दषहानये
ततोऽकरोद्वरान्यत्स रूपकं बहुरूपकम्
॥७२॥
पूर्व रङ्गप्रसङ्ग ेन
पुष्पाञ्जलिपुरस्सरम्
।।७३॥
नान्दी प्रयोज्य सोऽन्ते ऽस्यादिशन् रङ्ग महदुमभौ । धृतमङ्गलने पच्यः कल्पशास्त्रीय देवराट् ॥७४॥ सलयैः पादविन्यासः परितो रङ्गमण्डलम् 1 परिक्रामन्नसी रेजे मिमान इव तद्धराम् ॥७५॥ कृतपुष्पाञ्जली ताण्डवाग्म्मसंभ्रमेऽस्य हि । दिवोऽमुचन् सुराः पुष्पवर्ष तद्भक्तिमोदिता: । ७६॥ वीणा मधुरमारेणुः कलं वंणा विसस्वनुः । मन्द्र मनोहरं गानं किन्नरोभिः समुज्जगे ।।७७।।
देता था जो वीन हो, बरित हो, कृपण हो, प्रभुपूर्ण नेत्रों वाला हो, हर्ष रहित हो और कौतुक से शून्य हो ।। ६६ ।। समस्त लोक मानव से पूर्ण हो रहा है यह देख जो प्रत्यधिक कौतुक से प्रेरित हो रहा था तथा जन्माभिषेक के अनुरूप अपने हर्ष, परमभक्ति, स्वानुराग और मनोवृत्ति को प्रकट कर रहा था ऐसे खोधर्मेन्द्र ने देवों के साथ प्रानन्द नामक नाटक प्रारम्भ किया ।।६७-६८ ।। उस समय रूद्र के नृत्यारम्भ में नृत्य के विधान को जानने वाले तथा उसके योग्य बाजा बजाने वाले गन्धर्षो ने गीतों का बहुतभारी समूह तैयार किया था ॥ ६६ ॥ स्त्री तथा बन्धुजनों से सहित विश्वसेन भादि दर्शक उसे देखने के लिए इस नाटक में जिनेन्द्र के साथ बैठे थे ||७०1। सबसे पहले इन्द्र ने त्रिवर्गरूप फल को देने वाला मान्यो प्रावि रङ्गावतार किया और उसके पश्चात् जन्माभिषेक से संबद्ध नाटक किया ।। ७१|| तदनन्तर जगद्गुरु के नौ भवों के संदर्भ को लेकर अन्य अनेक रूपक किये ॥७२॥ पापक्षय के लिये पूर्वरङ्ग के प्रसङ्ग से पुष्पाञ्जलि बिखेरते हुए उसने ताण्डव नृत्य का ही प्रारम्भ किया ।। ७३ ।। नान्दी कर उसके अन्त में जो रङ्गस्थल को बहुत भारी प्रावेश वे रहा था तथा जिसने मङ्गलमय देव धारण किया था ऐसा इन्द्र कल्पवृक्ष के समान सुशोभित हो रहा था ।। ७४ । । रङ्गभूमि के चारों छोर लय सहित पादविन्यास से घूमता हुआा इन्द्र ऐसा जान पड़ता था मानों उस भूमि को नाप ही रहा हो ।।७५।। पुष्पाञ्जलि विखेरमे के बाद ज्यों ही इन्द्र का ताण्डव नृत्य प्रारम्भ हुआ त्यों ही उसकी भक्ति से प्रसन्न देवों ने उस पर प्रकाश से पुष्प बरसाये ||७६ || बोरणाएं मधुर गान करने लगीं, बांसुरियों ने मधुर तान छेड़ दी और किनरियों ने गम्भीर तथा मनोहर गान गाना प्रारम्भ कर दिया