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* द्वादशम सर्ग *
[ १४६ स्तो दिसिंहासने तपार्श्वयोहे मे निरोपमे । सौधर्मशानकल्पेशयोः स्थित्यं तन्महोत्भवे ।। ६६ ।। कलशध्वजभृङ्गारसुप्रतिष्ठकदर्पणान । छत्रचामरतालानि मङ्गलानि विर्भात्त या ।।७० ॥ ततः परीत्य तं मेरु' देवराज: सुरैः समम् । न्यधात्त प्राड मुख देवं मध्यस्थे सिंहविष्टरे ।७१ । तामावेष्ट्यामरास्तस्थर्य थायोग्यमनमान् । दिक्ष द्रष्टु जिनाधीशजन्मस्नान महोत्मयम् ।।७२।। यथास्वं दिग्यिदिग्भागेषु दिक्पाला: स्थिति व्यधुः । साद्धं स्वे: स्वनिकायजिनकल्याण दिदृश्यया ।।७३।। कल्पनार्थस्तदा चाभूत्सरुद्ध पाण्डुकं वनम् । शचीभिरखिलं खं शप्सरोभिः सुम्सन्यकैः ।।७।। तत्र मण्डपविन्यासो महाश्च के मुदामरः । सर्व त्रिभुवनं यत्र सुखेनास्ते मिथोऽव्ययम् ।।७।। कल्पानोकह जाता: स्रजस्त त्रावलम्बिताः । रेजुर्धमरझाङ्कारैर्गातुकामा इव प्रभुम् ।।७।। कि स्वर्गपचलितः स्वस्थानाद्वा कि प्राप स्वर्गसाम् । मेरुस्तदुत्मत्रं दृष्ट्वा तिशङ्का व्यधुः बगा: ।७४। ततोऽभिषेचन कतु सोधर्मशः प्रचक्रमे । हर्यासनस्थ तीथेशोऽशेषकल्पाधिप: समम् ।।७८।। तट को व्याप्त करने वाला है, मध्य में स्थित है तथा तीर्थंकरों के जन्माभिषेक से पवित्र है ॥६८।। उस सिंहासन के दोनों प्रोर उस महोत्सव के समय सौधर्मेन्द्र और ऐशानेन्द्र के खड़े होने के लिये सुवर्णमय दो अनुपम सिंहासन और थे॥६६॥ जो पाण्डुक शिला कलश, ध्वजा, भारी, ठौना, दर्पण, छत्र, चामर और व्यजन इन पाठ मङ्गल द्रव्यों को धारण करती है ।।७।।
तदनन्तर इन्द्र ने बेवों के साथ उस मेरु पर्वत को प्रदक्षिणाएं देकर बीच के सिंहासन पर उन जिनबालक को पूर्वाभिमुख विराजमान कर दिया ।।७१। जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक सम्बन्धी महोत्सव को देखने के लिये देव लोग उस पाण्डक शिला को घेर कर यथायोग्य अनुक्रम से सब दिशात्रों में स्थित हो गये ॥७२॥ जिन कल्याणक के देखने को इच्छा से विषपाल, अपने अपने निकायों के साथ यथायोग्य दिशानों और विदिशाओं में स्थित हो गये ।।७३॥ उस समय पाण्डक धन और संपूर्ण प्राकाश स्वर्ग के इन्द्रों, इन्द्रारिणयों, अप्सराभों और देध सैनिकों से व्याप्त हो गया ।७४।। वहां देवों ने हर्षपूर्वक इतना बड़ा मण्डप बनाया कि जिसमें तीनों लोक परस्पर पीड़ा पहुंचाये बिना सुख से बैठ सकते थे ॥७५॥ उस मण्डप में जहां तहां कल्पवृक्षों से उत्पन्न मालाएं लटकाई गई थीं जो भ्रमरों की झाङ्कार से ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों प्रभु का गुणगान ही करना चाहती हों ।।७६।। यहां यह उत्सव देखकर विद्याधर ऐसी शङ्का कर रहे थे कि क्या स्वर्ग अपने स्थान से विचलित हो गया है ? या मेरु ही स्वर्गरूपता को प्राप्त हो गया है ॥७७।।
तदनन्तर सौधर्मेन्द्र, सिंहासन पर स्थित तीर्थङ्कर का स्वर्ग के समस्त इन्द्रों के १. पोद्वारहित यथा स्यात्तथा २. मिहामन म्यतीर्थकरस्य ।