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* श्री पार्श्वनाथ चरित * स्वाधोभागे विधत्ते यो भद्र शालाभिधं वनम् । परिधानमिव स्वस्य जिनमन्दिरभूषितम् । ५६।। मेखलायामयाधायां नन्दनं विभृते दनम् । यः कटीसुत्रदामेव तीर्थेशागारमण्डिलम् ।।६।। तत: सोमनसोद्यान यो बिभर्ति शुकच्छवि । चतुश्चैत्यालयोपेतं 'पर्य संख्यानमूजितम् ।।६१।। यस्यालङ्क रुते मूनि वनं पाण्डुकसंज्ञकम् । चैत्यगेहणिलाचूलिकाद्र माय ग्लंकृतम् ॥६॥ यत्रायान्ति च पूआय जिनार्यानां सुगसुराः । खगेशाश्चारणा नित्यं तत्र का वर्णना परा ।।६३।। तत्र हीशान दिग्भागे पाण्डु काख्या शिला परा । प्रद्धन्दुसन्निभा शुद्धस्फाटिकोपलसंमया ।। ६४।। योजनानां शतायामा तदर्द्ध विस्तरामला । अष्टोत्सेधा जिनस्नान घौ तेवाभाद्धराष्टमी२ ॥६५॥ भरतोत्पन्नतीर्थेशमन्मस्नानमहोत्सवे । बहुशः क्षालिता शके: क्षीरोदचिवारिभिः ।।६६।। क्रोशपादोज्छितं तत्प्रमारणं भूमौ च बिस्तरम् । तदई मूर्धिन तस्या उपरि सिंहासनं महत् ।।६७।। हैम मणिमयं दिव्यं तेजसा व्यारत दिक्तम् । मध्यस्थमस्ति तीर्थशजन्मम्नानविषितम् ।।६८।।
पैतालीस लाख योजन विस्तार वाला ऋजु नामक दिव्य विमान है ।।५८।। जो मेरु पर्वत अपने अधोभाग में जिनमन्दिरों से विभूषित भद्रशाल नामक धन को धारण कर रहा है । बह भद्रशाल वत ऐसा जान पड़ता है मानों मेरु पर्वत का अधोवस्त्र ही हो ॥५६॥ तदनन्तर जो प्रथम मेखला पर जिनमन्दिरों से विभूषित कटीसूत्र की माला के समान नन्दन वन को पारण करता है ॥६॥ उसके ऊपर जो चार चैत्यालयों से साहित, शुक के समान कान्ति बाले, पत्रों से सुशोभित बहुत बड़े सौमनस बन को धारण करता है ॥६॥ जिस सुमेरु पर्वत के मस्तक पर चैत्यालय पाण्डक शिला, धूलिका और वृक्ष प्रादि से प्रलंकृत पाण्डुक वन सुशोभित हो रहा है ॥६२॥ जहां जिन प्रतिमाओं की पूजा के लिये सुर असुर विद्याधर तथा चारणऋद्धिधारी मुनिराज निरन्तर पाया करते हैं वहां अन्य क्या परर्णन किया जाय ? अर्थात् कुछ नहीं ॥६३॥
उस पर्वत पर ऐशान दिशा में अर्धचन्द्र के समान प्राकार वाली शुद्धस्फटिकमणिमय उत्कृष्ट पाण्डुक शिला है ।। ६४॥ यह पाण्डक शिला सौ यौमन लम्बो, पचास योजन चौड़ी तथा पाठ योजन ऊंची है और जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक से पवित्र होने के कारण अष्टम भूमि-ईषत्प्राम्भार भूमि के समान सुशोभित हो रही है ॥६५॥ भरतक्षेत्र में उत्पन्न तीर्थकरों के जन्माभिषेक महोत्सव में यह शिला अनेकों बार इन्द्रों द्वारा क्षीरसागर के उज्ज्वल जल से पखारी गई है ॥६६॥ उस पाण्डुक शिला पर एक विशाल सिंहासन है जो पाय कोश ऊंचा है तथा जिसकी चौड़ाई भूमि पर पाय कोश और ऊपर उससे प्राधी है ॥६७॥ वह सिंहासन सुवर्ण और मरिणयों से तन्मय है, सुन्दर है, तेज से दिशामों के
१, चोपसंख्यात स्व० २. पत्प्रारभारनाम्ना अष्टमभूमिरिव ।