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• द्वादशम सर्ग
[ १५१ स्वाग्निर्ममे बहून बाहून स्तानादित्सुः शताध्वरः । स तैः साभरणभेंजेभूषाङ्गकल्पशाखिवत् १८६॥ दोःसहस्रोत: कुम्भमुक्ताफलस्रगचितः । भेजे सौधर्म कल्पेशो नाजनाङ्गमोपमाम् ।।१०।। वारत्रयं जयेत्युक्त्वात्राद्यां धारां स्यपासयत् । सौधर्मेन्द्रः प्रभोमूनि छिन्नधुनिम्नगोपमाम् १९१ ततः समन्तत: शक : सर्वेर्धारा निपातिताः । सौवर्नीरसंपूर्ण: कुम्भंवर्षाम्वुर्दरिव ।। ६२।। तदा कलकलो भूपातुसंख्यसुरकोटिभिः । प्रमोदनिर्भरैश्चक्रे वषिरी कुतखाङ्गणः ।।६३|| महानच वापप्तन् वार्धा रास्तस्य मूर्धनि । हेलया स्वमहिम्ना स ताः प्रतीच्छेद्गिरीन्द्रवत् ६४ पतन्ति यगिरे धिन या धारा वेगवत्तराः । गङ्गाप्रवाहसादृश्या यात्यसौ शतखण्डताम् ॥१५॥ अप्रमाणमहावीर्यो मन्यते ता जिनाधिपः । पुष्पाणीव स्ववीर्येण सिंहविष्टरमाश्रितः ।।६६।। उच्छलन्त्यो नभोभागे विरेजुई रमुच्छलाः । जिनाङ्गस्पर्शमावेण पापान्मुक्ता इबोर्वगाः।६७ स्नानाम्भःशीकराः केचिद्वभुस्तिर्य ग्विसारिणः । कर्णपूरश्रियं प्राप्ता इव स्त्र्यिास्यमण्डने ।६८। व्याप्त हो गया हो ।।८। उन फलशों को ग्रहण करने के इच्छुक इन्द्र ने अपनी बहुत सी भुजाएं बना ली और प्राभरणों से सुसज्जित उन कलशों से वह भूषणाङ्ग नाति के कल्पवृक्ष के समान गुरवित होने लगा एक हजार भुजाओं से उठाये तथा मोतियों की मालानों से सुशोभित उन कलशों से सौधर्मेन्द्र भाजनाङ्ग जाति के कल्पवृक्ष को उपमा को प्राप्त हो रहा था ॥६०|| तीन बार जय जय शब्द का उच्चारण कर सौधर्मेन्द्र ने प्रभु के मस्तक पर प्रथम धारा छोड़ी। वह धारा प्राकाशगङ्गा को उपमा को छिन्न भिन्न कर रही थी अर्थात् आकाशगङ्गा की धारा से भी अधिक स्थूल थी ॥६॥ तदनन्तर समस्त इन्द्रों ने वर्षाऋतु के मेघों के समान जल से भरे हुए सुवर्ण कलशों के द्वारा सब प्रोर से धाराएं छोडी ॥२॥ उस समय हर्ष से भरे हुए असंख्य देवों को कोटियों द्वारा गगनाङ्गरण को बहरा करने वाला बहुत भारी फोलाहल किया जा रहा था ॥६३।। महानदियों के समान जल की धाराए प्रभु के मस्तक पर पड़ रही थीं और वे उन्हें अपनी महिमा से गिरिराज सुमेरु के समान अनायास ही झेल रहे थे ।।६४॥ गङ्गा प्रवाह के समान अतिशय वेग से युक्त जो धाराए' यदि पर्वत के शिखर पर पड़ें तो वह पर्वत शतखण्डपने को प्राप्त हो जाय अर्थात् जिन धाराओं के पड़ने से पर्वत भी चूर चूर हो जाते हैं उन धारामों को अपरिमित महान वीर्य से युक्त सिंहासनारूढ जिनेन्द्र अपने वीर्य से फूलों के समान मानते थे ।।६५-६६॥ प्राकाश में दूर तक उछलती हुई जल धाराएं ऐसी जान पड़ती थीं मानों जिनेन्द्र शरीर के स्पर्श मात्र से वे पाप से मुक्त होकर ऊर्ध्वलोक को ओर आ रही थीं ॥७॥ तिर्यग दिशा में फैले हुए स्नान जल के कितने ही छींटे दिशा १. सान कलशान्, मादिः ग्रहीतुमिच्छु २ इन्द्रः ३. भुज सहस्रोत्थापिनैः ४ छिन्ना निम्न गाया पाषाणगङ्गाया उपमा व्या ताम् ५. दिगङ्गानामूखमण्डने ।