________________
2 द्वावशम सर्ग *
[ १४५
इत्यभिष्टुत्य गूढाङ्गो तां मायानिया युजत् । तस्याः पुरो निधायासौ मायाशिशुमथापरम् ॥३०॥ प्रादाय तं जगन्नाथं पाणिभ्यां सागमन्मुदम् । चूडामणि मिवोत्सर्वत्त जसा व्याप्तदिक्चयम् ॥३१॥ सुदुर्लभं तदासाद्य तगात्रस्पर्शमाशु सा । मुहस्तन्मुखमालोक्य भेजे प्रीति परां मुदा ।।३२॥ ततो बभौ व्रजन्ती सा कुमारेण सम भृणम् । तदङ्गदीप्ति रश्म्योपः प्राचीव भामुनोजिता ।।३३।। भृङ्गारं कलशं छत्रं चामरं सुप्रतिष्ठकम् । ध्वजं च दर्पण तालमित्यादाय तदा मुदा ।।३४।। मङ्गलाष्टकमन्यन्तभूत्या भतु: पुरो ययुः । दिव्या मङ्गलधारिण्यो दिक्कुमार्यो महोत्सवे' ।३५ पानीय देवराजस्याधात २ करतले शची । प्राचीव ह्य दयाद्रेः शिखरे बालार्क मूर्जितम् ।।३६।। मोधर्मेन्द्रस्तदेन्द्राण्या हस्तादादाय संभ्रमम् । मुहस्तन्मुखमालोक्येच्छन् स्तवं कर्तुं मुथयो ।।३।। त्वं देव त्रिजगत्स्वामी त्वं नाथ महतां गुरुः । अज्ञानध्वान्तहन्ता त्व दोपो विश्वार्थदर्शने ॥३८।। केवलज्ञानभानोस्त्वमुदयाद्रिभविष्यसि । अकारणजगबन्धुस्त्व त्र विश्वहितङ्करः ॥३६।।
युक्त इन्द्राणी ने माता को मायामयी निद्रा से युक्त कर दिया तथा उसके प्रागे मायानिर्मित दूसरा पुत्र रख कर चूडामरिण के समान श्रेष्ठ तथा बढ़ते हुए तेज से दिक्समूह को व्याप्त करने वाले अगत्पति जिनबालक को हाथों से उठा लिया । यह सब करती हुई वह परम मानन्द को भारत - उ सध्य शीघ्र ही प्रत्यरत दुर्लभ उनके शरीर का स्पर्श पाकर तथा बार २ उनका मुख देख कर इवाणी हर्ष से परम प्रीति को प्राप्त हो रही यो॥३२॥
___ तदनन्तर जिन बालक के साथ जाती हुई श्रेष्ठ इन्द्राणी उनके शरीर को कान्ति तथा किरणों के समूह से सूर्य सहित पूर्व दिशा के समान प्रत्यन्त सुशोभित होने लगी ॥३३।। उस समय झारी, कलश, छत्र, चामर, ठोमा, ध्वजा, वर्पण और पल्ला इन पाठ मङ्गल द्रव्यों को हर्षपूर्वक लेकर मङ्गल द्रव्यों को धारण करने वाली सुन्दर विक्कुमारी देवियां उस महोत्सव में बहुत भारी भन से जिनबालक के प्रागे धागे चल रही थीं ॥३४-३५॥ इन्द्राणी ने जिनबालक को लाकर इन्द्र के करतल पर उस प्रकार रख दिया जिस प्रकार कि पूर्व दिशा देदीप्यमान प्रातःकाल के सूर्य को उदयाचल के शिखर पर रख देती है ।।३६।। उस समय सौधर्मेन्द्र, इन्द्राणी के हाथ से हर्षपूर्वक जिनबालक को लेकर तथा बार बार उनका मुख देखकर स्तवन करने की इच्छा करता हुमा उखत हुमा ॥३७॥
हे देव ! तुम तीन जगत् के स्वामी हो । हे नाथ ! तुम महान पुरुषों के गुरु हो। तुम समस्त पदार्थों को देखने के लिये प्रमान तिमिर के नाशक दीपक हो ॥३८॥ तुम
१.महोत्सव.क. २. इन्द्रस्य ।