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श्री पार्श्वनाथ चरित घोतयन्तो दिश: स्वाङ्गदीप्तिभूषण रश्मिभिः । अवतीर्याम्बरामि पुरी प्रापुदिवौकसः ।।२०।। ज्योतिष्का: पञ्चधा सर्व दशधा भवनामरा: । व्यन्तरा मष्टधा सेन्द्रा: सकलत्राः सवाहनाः ।२२॥ विभूत्या परयाजग्मुस्तत्र धर्मरसाङ्किताः । देवाः पुण्याप्तये तीर्थेशजन्माभिषवोत्सवे ।।२२।। तां पुरी तनं वीथीविश्वगावेष्टय सर्वतः । साई स्वस्वपरीवारस्तदास्युर्देवसैन्यकाः ।।२३।। इन्द्राणोनिकररिन्द्रसमूहै: समहोत्सवः । राजाङ्गमभूद्ध देवा ङ्गमिवापरम् ।।२४।। शचीभिर्वासर्वदेवः सुरानीकैस्तदा श्रिया। विमानैरप्सरोभिः स्वःपुरीव सा पुरी बभौ ॥२५॥ ततः शची प्रविश्याशु प्रसवागारमूर्जितम् । कुमारेण सहापश्यज्जितलक्ष्मी जिनाम्बिकाम् ॥२६॥ त्रिः परीत्य प्रणम्योच्चैः शिरसा तं जगद्गुरुम् । जिनमातुः पुरः स्थित्वेन्द्राणी तां पलाधते स्पिति:२० मातस्त्वं जगतां माता कल्याणकोटिभागिनी । सुमङ्गला सपुण्यासि त्वं सती च यशस्विनी ।।२।। महादेवप्रसूतेस्त्वं महादेवी जगद्धिप्ता । स्तुत्यात्र त्रिजगनायरा दन्येव भारती ॥२६॥
जो प्राकाश में अन्य स्वर्ग की रचना करते हुए से जान पड़ते थे, तथा जो अपने शरीर को दीप्ति और आभूषणों की किरणों से विशात्रों को प्रकाशित कर रहे थे ऐसे देव प्राकाश से पृथिवी पर उतर कर नगरी को प्राप्त हुए ॥१६-२०॥ पांच प्रकार के ज्योतिष्क, रश प्रकार के भवनवासी और पाठ प्रकार के व्यन्तर देव अपनी अपनी स्त्रियों और वाहनों के साथ बड़ी विभूति से धर्मस्नेह से युक्त होते हुए पुण्य प्राप्ति के लिये तीर्थकर के उस जन्माभिषेक महोत्सव में प्राये थे ॥२१-२२।। उस समय देवों के सैनिक सब भोर से उस पूरी को, उस वन को और उन गलियों को घेर कर अपने अपने परिवारों के साथ बैठे हुए थे ॥२३॥ महोत्सवों से सहित इन्द्र इन्द्राणियों के समूह से रुका हुआ राजाङ्गण ऐसा जान पड़ता था मानो दूसरा देवाङ्गण हो हो ॥२४॥ उस समय वह नगरी, इन्द्राणियों, इन्द्रों, देवों, देव सेनाओं, लक्ष्मी, विमानों और अप्सरानों से स्वर्गपुरी के समान सुशोभित हो रही थी ॥२५॥
तवनन्तर इन्द्राणी ने शीघ्र ही सुदृढ प्रसूतिका गृह में प्रवेश कर कुमार के साथ, लक्ष्मी को जीतने वाली जिनमाता को देखा ॥२६॥ उन जगद्गुरु की तीन प्रदक्षिणाएं देकर तथा शिर से अच्छी तरह प्रणाम कर इन्द्राणी जिनमाता के प्रागे खड़ी हो गयो
और उसकी इस प्रकार स्तुति करने लगी ॥२७॥ हे माता ! तुम जगत् की माता हो, कल्याणों की कोटी को प्राप्त हो, उत्तम मङ्गल से सहित हो, पुण्यवती हो, पतिव्रता हो और यशस्वती हो ॥२८॥ महादेव जिनेन्द्र देव को उत्पन्न करने के कारण तुम महादेवी हो, जगत् का हित करने वाली हो, तीन जगत् के स्वामियों के द्वारा स्तुत्य हो, पूज्य हो, और सरस्वती के समान बन्दनीय हो ॥२६।। इस प्रकार स्तुति कर तिरोहित शरीर से