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१४२ ]
* श्री पार्श्वनाथ परित -
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MAHANI
द्वादशः सर्गः नमः श्री मुक्तिकान्ताय काम मल्लविनाशिने । श्रीपाबस्वामिने सिद्धयं जगद्भत्रै चिदात्मने ।।१।। दिग्भिः साधु नभोऽयासीनिर्मलं जिनजन्मतः । अम्लानकुसुमैश्चक्र : पुष्पवृष्टि 'सुरद्रुमाः ॥२॥ अनाहता महाध्धाना दध्वनुदिविजानका: । ववी तदा महन्मन्दं सुगन्धिः शिशिर: स्वयम् ।।३।। अभूद् घण्टारवोऽतीवगम्भीरो निर्जरान्प्रति । वदन्निव जिनेन्द्रस्य अन्म नाकालये स्वयम् ।।४।। यासनानि सुरेणानामकस्मात्प्रचकम्पिरे । देवानुच्चासनेभ्योऽधः पातयन्तीव भक्तये ।।५।। शिरांसि प्रचलन्मौलिमणीनि प्रति दधुः । कुर्वन्तीव नमस्कारं भस्या तीर्थेशपादयोः ।।६।। दृष्ट्वेत्यादि महाश्चर्य ज्ञात्वा तीर्थशजन्म ते । कल्पेशा अवविज्ञानाजन्मस्नाने मति व्यधुः ।।७।। कण्ठीरवमहाध्वानो ज्योतिषामालयेष्वभूत् । स्वयं तथा परं सर्व बह्वाश्चयं च नाकवत् ।।८।।
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द्वादश सर्ग जो अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मी से युक्त मुक्ति के कारत हैं, काम सुभट को विनष्ट करने वाले हैं, जगत् के स्वामी हैं तथा चैतन्यरूप हैं उन पार्श्वनाथ भगवान् को मैं सिद्धि के लिये नमस्कार करता हूं ॥१॥
अथानन्तर जिनेन्द्र भगवान् के जन्म से प्राकाश विशाओं के साथ निर्मल हो गया और कल्पवृक्ष ताजे फूलों से पुष्पवृष्टि करने लगे ।।२।। उस समय महान शब्द करने वाले देवदुन्दुभि बिना बजाये ही शब्द करने लगे तथा सुगन्धित और शीतल वायु धीरे धीरे स्वयं बहने लगी ॥३॥ स्वर्ग में अपने माप अत्यन्त गम्भीर घण्टा का शब्द होने लगा। वह घण्टा का शब्द ऐसा जान पड़ता था मानों देवों को जिनेन्द्र जन्म की सूचना ही ये रहा हो ॥४॥ इन्द्रों के प्रासन अकस्मात् कम्पित हो उठे उससे थे ऐसे जान पड़ते थे मानों भक्ति के लिये देवों को उच्चासनों से भीवे ही गिरा रहे हों ॥५॥ चञ्चल मुकुटमरिणयों से युक्त इन्द्रों के शिर अपने पाप नम्रीभूत हो गये उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों भक्ति पूर्वक तीर्थङ्कर के चरणकमलों में नमस्कार ही कर रहे हों ॥६॥ इत्यादि महान आश्चर्य को देखकर तथा प्रविज्ञान से तीर्थकर का जन्म जानकर उन इन्द्रों ने जन्माभिषेक में बुद्धि लगायो अर्थात अन्माभिषेक करने का विचार किया ॥७॥ ज्योतिषो वेषों के विमानों में अपने सिंहों का महान शम्ब हुा । इसी प्रकार स्वर्ग के समान अन्य सम अनेक आश्चर्य १. कल्पवृक्षाः, २. वेबदुन्दुभयः, ३. स्वर्ग. ४. सिंहध्यनि:, ।