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* एकादशम सर्ग *
भोक्तु मुक्तिवराङ्गनां बुषजना मस्वेति यत्नात्परं,
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कुर्वीवं सुखसिद्धयेऽप्यनुदिनं धर्मं जिनेन्द्रोदितम् ।। १२३ ।।
लगभग
पार्थो विघ्नोषहन्ता सकलगुण निर्धािविश्वलोकैकभर्ता,
हन्ता दुःकर्मशत्रोः शिव सुखजनकः सर्वधर्मे कहेतुः 1
लोकाप्रज्ञः शरण्यो भवरिपुकुभयाल्लोकनार्थः स्तुतोऽर्यो,
वन्यः पूज्यो मया संहरतु स चरणे विध्नजालं सतां मे ।। १२४ ।। इति भट्टारक श्री सकलकीति विरचिते श्री पार्श्वनाथ चरित्रे तीर्थंकरगर्भजन्मवनीनामेकादशः सर्गः ।। ११ ।।
वाले अनुपम दिव्यसुख रूपी श्रमृत का भोग कर तीर्थङ्कर, जगत्त्रय का गुरु तथा मुक्तिरूपी उत्कृष्ट स्त्री का उपभोग करने के लिये त्रिलोक का प्रद्वितीय चूडामरिण हुआ, ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो ! सुख की प्राप्ति के लिये प्रतिदिन जिनेन्द्रोक्त उत्कृष्ट धर्म को धारण करो ।। १२३ ।।
जो विघ्न समूह को नष्ट करने वाले हैं, समस्त गुणों के भाण्डार हैं, अखिल विश्व के द्वितीय स्वामी हैं, दुष्कर्म रूपी शत्रु को नष्ट करने वाले हैं, मोक्षसुख के जनक हैं, संपूर्ण धर्म के एक कारण हैं, लोका के ज्ञाता हैं, संसाररूपी शत्रु के खोटे भय से रक्षा करने वाले हैं, त्रिलोकपतियों के द्वारा स्तुत और पूजित हैं तथा मेरे द्वारा अन्दनीय और पूजनीय हैं ऐसे भी पार्श्वनाथ भगवान् मेरे सबाचरण में आने वाले विघ्न समूह को नष्ट करें १२४
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में तीर्थङ्कर के गर्भ और जन्म का वर्णन करने वाला ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुप्रा ॥। ११॥
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