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* श्री पारनाथ चरित *
रैद' पार्वतीर्थेशो विश्वसेननुपालये । बाह्मीगर्भ जगन्नाथोऽवरिष्यति मुक्तये ॥७॥ ततो गत्वा विधेहि त्वं देवैः सार्द्ध शुभाप्तये । रत्नदृष्टयादिभिः सारं पञ्चाश्चयं सुखावहम् ।७२।। तदान शिरसादायायामरैः सह भूतलम् । तस्मात्स पातमामास रत्नवृष्टि नृपालये ॥७३|| रेषाररावतस्पूनमहायातकराकृतिः । धर्मकल्पद्रुमस्येव बभो प्रारोहसंततिः ।।७४।। सध्याकाशं पतन्ती सा जसमासरा दिशि । स्वर्गमारिवायान्ती सेवितु जिनमातरम् ।।७।। वात्पतन्ती मणीनां सा धारा संप्रेक्षिता क्षरणम् । ज्योतिर्मालेष तपित्रोरागच्छन्त्यत्र सेक्या ।।७६।। मागणे' गणनातीता रत्नहेममयी व्यभात् । सा धारा कुर्वती चात्र अगत्तेजोमयं महत् ।।७७।। ममर्थं रत्नसंघात रुवं दृष्ट्वा नृपाङ्गणम् । संकुलं मरिणतेजोभिज्योतिश्चक्रमिवादभुतम् ।।७।। परस्परं अगुर्दक्षा इति धर्मविदो जनाः । अहो पश्येदमत्यर्थ धर्ममाहात्म्यमीदृशम् १७६।। पद्गीर्वाणे पागारं साङ्गणं पूरितं मुदा । जिनोत्पत्तिप्रभावन स्वर्णमाणिक्यराभिः ।।८०॥ परे प्राहुः किपरमात्रमिदं भीषर्मपाकल: । पित्रो: सेवां करिष्यन्ति सुरेशा: किरा इव ॥८॥
के लिये विश्वसेन राजा के घर ब्राह्मी के गर्भ में अवतार लेंगे ॥७१॥ इसलिये तुम देवों के साथ जाकर कल्याण की प्राप्ति के लिये रत्तवृष्टि प्रादि के द्वारा सुखदायक श्रेष्ठ पञ्चास्वयं करो ॥७२।। तदनन्तर इन्द्र की प्राज्ञा को शिर से स्वीकृत कर कुबेर देवों के साथ पृथिवी तल पर पाया और राजभवन में रत्नवृष्टि गिराने लगा ॥७३॥ ऐरावत हाथी के स्कूल तथा बहुत लम्बे शुण्डाण्ड के समान प्राकृति को धारण करने वाली रत्नों की वह धारा धर्मरूपी कल्पवृक्ष के अंकुरों की संतति के समान सुशोभित हो रही थी ॥७४॥ प्राकाश को घेर कर पड़ती हुई वह रत्नधारा अपने तेज से दिशामों में ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों जिनमाता की सेवा करने के लिये स्वर्ग की लक्ष्मी हो पा रही हो ॥७॥ प्राकाश से पड़ती हुई यह रत्नों की धारा क्षणभर के लिये ऐसी दिख रही थी मानों मिनेन्द्र भगवान् के माता पिता की सेवा करने के लिये ज्योतिष्क वेदों की पंक्ति हो यहां पा रही हो ॥६॥ प्राकाशाङ्गण से पड़ती हुई वह असंख्य रत्नों तथा सुवर्ण को धारा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों इस महान जगत् को तेजोमय हो कर रही हो ।।७७।। प्रमूल्य रत्नों के समूह से व्याप्त तथा रत्नों के तेज से परिपूर्ण राजा के अङ्गण को प्राश्चर्यकारक ज्योतिश्चक्र के समान देखकर धर्म के ज्ञाता कुशल मनुष्य परस्पर ऐसा कहने लगे कि महो ! यह धर्म की ऐसी सातिशय महिमा देखो ।।७८-७६।। देवों ने जिनेन्द्रमन्म के प्रभाव से प्राङ्गरण सहित राजमहल को हर्षपूर्वक स्वर्ण और मरिणयों की राशि से पूर्ण कर दिया है ॥८॥ अन्य मनुष्य कहने लगे कि यह कितनी सी बात है ? श्री धर्म के परिपाक
१. कुवेर २, नभोऽङ्गणे।