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* नाम *
[ २३ धन्ये प्राहरहो सरिक यन संप्राप्यतेऽद्भुतम् । दूरं वा दुर्लभं सर्व धार्मिकैश्च जगत्त्रये ॥१६२ || केचिन्मणिसुवर्णीषं तद्विलोक्य सुरोभवम् । प्राकर्ण्य तद्ववो दक्षा मति धर्मे व्यधुर्ह दाम् ॥८३॥ कल्पद्र मसुपुष्पाणां वृष्टिदेवता भी । कुर्वन्त्यत्र विभोर्गानं पतन्ती' वालिभास तैः ||४|| गन्धterant वृष्टिरागच्छन्ती व्यभात्तराम् । पोषयन्तीव लोकेऽस्मिन् दिव्यमुक्ताफलधियम् ।। ८५ ।। देवानकः सुराः कुर्युर्दुन्दुभ्याख्यं स्वरोजितम् । प्रविनिर्घोषसंकाशं वधिरीकृतदिग्मुखम् || ६६ || जयनन्देश वर्धस्व कल्याण शतभाग्भव । भूप स्वरामया सार्द्ध विश्वराजशिरोमणिः || ८७१ धन्यस्त्वं जगतां मान्यो धन्या देयं जगत्पतिः । जिनो जगत्त्रयीनाथो यद्गर्भेऽवतरिष्यति ॥८८॥ इत्यादिशब्दसंघातैः सुराः कोलाहलं व्यधुः । खाङ्गणे तुष्टिमापन्ना जयादिश्वसंकुलम् ||८६ ॥ एवं षण्मासपर्यन्तं पञ्चाश्चर्यं महाद्भुतम् । जगदाश्चर्यकर्तारं व्यघुदेवा दिनं प्रति ॥१०॥ प्रयेकदा महासोधे मनोशे मृदुतल्प के । कृत्वा स्नानं चतुर्थं सुसुप्ता देवी सुधर्मणा ।। १ ।। से इन्द्र किङ्करों के समान माता पिता की सेवा करेंगे || ८१|| दूसरे पुरुष कहने लगे कि ग्रहो ! तीनों लोकों में वह कौन श्रद्भुत, दूरवर्ती अथवा दुर्लभ पदार्थ है जो धार्मिक जनों के द्वारा प्राप्त नहीं किया जाता हो ? ।।६२।। कितने ही चतुर मनुष्यों ने देवों से उत्पन्न हुई उस मरिण और सुवर्ण की राशि को देखकर तथा उनके वचन सुनकर धर्म में बुद्धि को दृढ किया ॥८३॥ देवकृत, कल्पवृक्ष के सुन्दर पुष्पों की दृष्टि यहां पड़ती हुई ऐसी जान पड़ती यी मानों भ्रमरों की झाङ्कार से प्रभु का गुणगान ही कर रही हो ॥ ८४॥ श्राती हुई गन्धोक की वृष्टि ऐसी सुशोभित हो रही यो मानों इस लोक में विष्य मोतियों की लक्ष्मी को ही पुष्ट कर रही हो ।।६५॥ वेव, देवों के नगाड़ों से जिस दुन्दुभिनामक सबल स्वर को कर रहे थे वह समुद्र की गर्जना के समान था तथा दिशाओं के अग्रभाग को बहरा कर रहा था ।। ८६ ।। हे ईश ! तुम अपनी प्राणवल्लभा के साथ जयवंत होश्रो, समृद्धिमान होश्रो वृद्धि को प्राप्त होश्रो और सैकडों कल्याणों के भाजन होश्रो । हे राजन् ! तुम समस्त राजाश्रों में शिरोमणि हो, तुम धन्य हो, जगन्मान्य हो, और यह आपकी प्राणबल्लभा भी धन्य है कि जिसके गर्भ में जगत्पति त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्र भगवान् अवतीर्ण होंगे ॥६७-६८ ॥ इत्यादि शब्दों के समूह से संतोष को प्राप्त हुए देव गगनाङ्गरण में जय जय आदि की ध्वनि से परिपूर्ण कोलाहल करने लगे । ८६|| इस प्रकार छह माह पर्यन्त देव प्रतिदिन जगत् को आश्चर्य उत्पन्न करने वाले प्रतिशय अद्भुत पञ्चाश्चर्य करते थे ॥ ६०॥
प्रथानन्तर एक समय ब्राह्मी देवी चतुर्थ स्नान करके मनोहर महाभवन में कोमल शय्या पर सुख से शयन कर रही थी ॥ ६१ ॥ शयन करते समय उसने रात्रि के पिछले
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इव मलिका तः इतिच्छेदः ।