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* एकादश सर्ग *
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एकादशः सर्गः
येनोत्पाद्याशु फैवल्यं जित्वारिजपरीषहान् | बोधितास्तापसाः सर्वे नमस्तस्मै चिदात्मने ||१|| अथातो मङ्गलोद्गीती: शृण्वती वन्दिनां सती । तुर्यैः प्राबोधिकैः शीघ्र ध्वनद्भिः प्रत्यबुद्ध सा ||२|| एतस्याः सुप्रबोधाय दिव्यवाण्या सुपाठकाः । तदा प्रपेडुरित्युच्चैमंङ्गलानि शुभान्यपि ॥३॥ प्रबोधसमयोऽयं ते देवि सन्मुखमागतः | वर्तते धर्मयोग्योऽयं कालः प्राभातिको महान् ||४|| उत्थाय शयनास्के विश्वच सामायिकं महत् । समभावं समालम्ब्य धर्मात सुखावहम् ।।५ ध्यानं प्रकुर्वन्ति स्वकचित्त ेन चार्हताम् । 'एनः शान्ये "सुग्युत्सर्ग केचिद्धीरा दृढव्रताः ||६ ॥ गुरूणां पञ्चनामोत्थं मन्त्रराजं जगद्धितम् १ परे जपन्ति पापघ्नं स्वर्गमुक्तिवशीकरम् ॥७॥ इत्येवं स्तवनार्थ: सुदक्षो लोकः प्रवर्तते । धर्मेध्याने प्रभातेऽत्र सिद्ध विश्वसुखावे ॥ ८ ॥ ॥ • जिनवाक्यांशुभिर्यदगान्मोह्तमः क्षयम् । तद्वत्सूर्यांशुभिभित्र तमो नैश्यं सुदृष्टिहृत् ॥६॥
एकादश सर्ग
जिन्होंने शत्रुकृत परिषहों को जीतकर तथा शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न कर समस्त तापसों को संबोधित किया उन चैतन्यस्वरूप पार्श्वनाथ को नमस्कार हो || १ ||
अथानन्तर वन्दोजनों के मङ्गलमय गीतों को सुनती हुई वह जिनमाता जागरण के लिये बजते हुए बाजों से शीघ्र ही जाग गई || २ || उत्तम पाठ पढ़ने वाले मागषजन इसे जगाने के लिये उस समय सुन्दरवारणी से इस प्रकार शुभमङ्गल उच्चस्वर से पढ़ रहे ये || ३ || हे देवि ! यह जागने का समय तुम्हारे सन्मुख श्राया है । यह प्रातःकाल का महान् समय धर्म के योग्य है || ४ || कितने ही लोग शय्या से उठकर तथा साम्यभाव का प्रालम्बन लेकर धर्म को सिद्धि के लिए सुखदायक महान् सामायिक करते हैं ||५|| कोई अपने एक चित्त से अर्हन्तों का ध्यान करते हैं और दृढता से व्रतों का पालन करने वाले कोई पापों को शान्ति के लिये कायोत्सर्ग कर रहे हैं || ६ || कोई गुरुनों के पांच नामों से उत्पन्न, जगत् हितकारी, पाप विनाशक तथा स्वर्ग और मोक्ष को वश करने वाले मन्त्रराज का जप करते हैं ||७|| इस प्रकार चतुर मनुष्य इस प्रभातकाल में सिद्धि के लिये स्तवन आदि के द्वारा समस्त सुखों के सागर स्वरूप धर्म्यध्यान में प्रवृत्त होते हैं ||८|| मिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के वचनरूपी किरणों से सुदृष्टि-सम्यग्दर्शन को हरने वाला मोह
१. पाणमनाय २. कायोत्सर्ग ३ नमस्कारः ४. एष श्लोकः ख० प्रती नास्ति ।