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* भी पाश्वनाथ चरित.
गाईंसविक्रीडितम् धर्मातिए समनितोऽतिविमलः सूनुस्तयोस्तीर्घकृद्
विश्वानन्दकरो महानिरुपमः पाश्चों भविष्यत्यहो। ज्ञात्वेतीह बुधाः कुरुष्वमनिशं स्वमोक्षसंपादक
विश्वसुखाकर सुचरणैः सर्वार्थसिद्धय परम् ॥१११।। पार्यो दुःखविनाशकः सुखकरः पाय पिता धर्मिणः
पाइँणात्र विलम्यते गुणचयः पाय तस्मै नमः । पार्षापास्त्वपरः स्वपापर्यजनकः पार्श्वस्य मुक्तिः प्रिया
पार्वे चित्तमहं दधे जिनप मा पार्श्व स्वपावं नय ॥११२॥ इति भट्टारक श्री सकलकोतिविरचिते पार्श्वनापरित्रे रत्नवृष्टिषोडशस्वप्नवर्णनो नाम दशमः सर्गः ॥१०॥ सम्पावन से त्रिलोकीनाथ के हर्ष को प्रकट करने वाले थे ॥११०॥ धर्म से उन दोनों के सर्वपूजित, प्रत्यरत निर्मल, सबके प्रानन्य को करने वाला, महान, निरुपम, पाश्र्व नामक तीर्थकर पुत्र होगा ऐसा जामकर महो विद्वज्जन हो ! सर्व मनोरथों की सिद्धि के लिये उत्तम पाचरणों से स्वर्ग मोक्ष को प्राप्त कराने वाला समस्त सुखों को सान उत्कृष्ट धर्म मिरमतर करो ।।१११॥
पार्थ जिनेन्द्र दुःख के विनाशक तथा सुख को करने वाले हैं, धर्मारमा जनों ने पावं जिनेन्द्र का प्राश्रय लिया है, पाय जिनेन्द्र के द्वारा गुणों का समूह प्राप्त किया जाता है, उन पार्य जिनेन्द्र के लिये नमस्कार है, पाव जिनेन्द्र से बढ़कर दूसरा अपनी मिकटता को प्राप्त कराने वाला नहीं है, पार्व जिमेन्द्र को मुक्ति प्रिय है, मैं पाव मिनेन्द्र में अपना चित्त लगाता हूँ, हे पाश्वं जिनेन्द्र मुझे अपने पास ले चलो ॥११२॥
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति द्वारा विरचित पार्श्वनाथ चरित में रत्नवृष्टि और सोलह स्थानों का वर्णन करने वाला वशम सर्म समाप्त हुा ।।१०।।
१। समन्वितोका।