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* श्री पार्श्वनाथ चरित * व्रतशीलोपवासाय दर्शनपूजनकर्मभि: । दृष्टिज्ञानक्षमा श्च बैराग्यभावनादिभिः ॥३१॥ भोगोपभोगसंपूर्ण नीतिमार्ग रताः शुभाः । रूपलावण्यनेपथ्यचीनांशुकविमण्डिताः ॥३२॥ दानिनोऽतिसदाचारास्तीर्थेशगुरुसेवनाः । ज्ञानविज्ञानसंपन्ना धनधान्यादिसंकुलाः ॥३३।। धर्मकार्यकरा यस्यां सुखिन: पुण्यपाकतः । नरास्ताहांग्वधा मार्यो वसन्ति तुङ्गधामसु ।।३४।। तस्या मध्ये विभात्युच्चैनरेन्द्र भवनं महत् । गिरीशिखराकारं तुङ्गप्राकारकेतुभिः ॥३५।। तत्पतिविश्वसेनाख्योऽप्यभूद्विश्वगुणकभूः । काश्यपास्यसुगोत्रस्थ इक्ष्वाकुवंशखांशुमान् ॥३६॥ स शशीवकलाधारस्तेजस्वी भानुमानिव । प्रभुरिन्द्र इवाभीष्टफलद: कल्पशाखिवत् ॥३७॥ जिनेन्द्रपादसंसक्तो गुरुसेवापरायग: ।धर्माधारः सदाचारी रूपेण जितमन्मथ: ।।३।। दाता भोक्ता विचारज्ञो नीतिमार्गप्रवर्तकः । गुणी प्रजाप्रियो दक्षो ज्ञानत्रयविभूषितः ॥३६।। दिव्याम्बर सुभूषाष्टितः स्वजनादिभिः ।शको वा यशसा सोऽभाद्विश्वभूपशिरोमणिः ।।४।। निरौपम्या महारूपा बभूव प्राबल्लभा । तस्य ब्राह्मो जगत्ख्याता परब्रह्मोद्भवक्षितिः ।।४।। दिक, सम्यग्दर्शन सम्यगज्ञान क्षमादिक, और वैराग्यभावना प्रादि के द्वारा जहां मनुष्य धर्म किया करते हैं ॥३०॥ जो भोगोपभोग से परिपूर्ण हैं, नीति मार्ग में रत हैं, शुभ हैं, रूप लावण्य वेषभूषा तथा क्षोम वस्त्रों से विभूषित हैं, दानी हैं, सदाचारी हैं, तीर्थकर तथा गुरुओं के सेवक हैं, ज्ञान-विज्ञान से संपन्न हैं, धन धान्यावि से युक्त हैं, धर्म कार्य करने वाले हैं, तथा पुण्योदय से सुखी हैं ऐसे मनुष्य जहां उत्तुङ्ग भवनों में निवास करते हैं तथा ऐसी ही स्त्रियां जहाँ ऊचे चे महलों में निवास करती हैं ।।३२-३४॥
उस वाराणसी के मध्य में गिरिराज के शिखराकार ऊचा विशाल राजभवन है ओ उन्नत कोट तथा पताकाओं से सुशोभित है ॥३५।। उस नगरी का राजा विश्वसेन था ओ समस्त गुरगों की अद्वितीय भूमि था, काश्यप गोत्र में स्थित था तथा इक्ष्वाकुवंशरूपी प्राकाश का सूर्य था ॥३६।। वह राजा विश्वसेन चन्द्रमा के समान कलाओं का प्राधार था, सूर्य के समान तेजस्वी था, इन्द्र के समान प्रभु था और कल्पवृक्ष के समान अभीष्टफल को देने वाला था ॥३७।। बह जिनेन्द्र भगवान के चरणों में संलग्न था, गुरुनों की सेवा में तत्पर रहता था, धर्म का प्राधार या, सदाचारी था, रूप से काम को जीतने वाला था, दानी था, भोक्ता था, विचारश था, नीति मार्ग का प्रवर्तक था, गुरणी था, प्रजा को प्रिय था, चतुर था, तीन मानों से विभूषित था, दिव्य वस्त्र तथा उत्तमोत्तम आभूषणों से विभूषित था, प्रात्मीय जनों से सवा परिवृत रहता था, समस्त राजाओं का शिरोमणि था और यश से इन्द्र के समान सुशोभित था ॥३८-४०॥
राजा विश्वसेन की प्राबल्लभा ब्राह्मी थी, जो निरुपम थी, महारूपवती थी, जगत् प्रसिद्ध थी, और परब्रह्म-तीर्थकर की जन्मभूमि थी ॥४१॥ वह कान्ति से चन्द्रमा