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- दशम सर्ग *
[ ११६ सा कलेबन्दवी' कान्त्या जगदानन्ददायिनी ! स्वगंस्त्रीरूपसर्वस्वमरदाघेव विनिर्मिता ॥४२।। तन्वङ्गी सुकुमाराङ्गा विश्वनेपथ्यधारिणी ।सुरचरा मधुरालापा भारतीव व्यभात्तराम् ।। ४३।। सुरेभगमनी तस्या नखचन्द्रमनोहरी । जितपो प्रगच्छन्तो धर्मकार्ये सुलक्षणो ॥४४।। मणिनूपुरझाकारैर्वधिरीकृतदिग्मुखी । रणभृङ्गयुतो भातः पडूजाविव सत्क्रमौर ।।४।। शोभा जसादये यास्याः क्याप्यन्यत्र न सास्त्यत: । कदल्यादिभषे गर्ने सस्मारिक वयंतेतराम् ।।४।। ऊरुद्वयं सुकान्त्यावध स्निग्धं स्थूलं सुखावहम् । स्पद्धं येयामरस्त्रीभिरतिरम्यं बभार सा ।।४७।। कल प्रस्थानमेतस्याः स्थानीकृत्य मनोभुवा । विनिजितं जगत्सर्वमनूनपरिमण्डलम् ॥४८|| कटीमण्डलमस्याः सुकाञ्चोशालपरिष्कृतम् । दुर्ग वाभादनङ्गस्य लसदंशुकसंवृतम् ।।४।। तनु मध्यं बभारासौ कृतं हि निम्ननाभिकम् । शरनदीव सात भर्तृ कीडागृहोपमम् ।।५०॥ हृदयं कुचकुम्भाम्यां बभौ तस्या मनोहरम् । सुहारनिर्भरण्या स्वभूपक्रीडाचलोपमम् ॥११॥ को कला के समान जगत् को प्रानन्द देने वाली थी तथा ऐसी जान पड़ती थी मानों देवाङ्गना के रूप सर्वस्व को लेकर ही बनायी गई हो ॥४४॥ जो तब भी, जिसका शरीर अत्यन्त सुकुमार था, जो समस्त वेषभूषा को धारण करती थी, सुन्दर स्वर और मधुर पालाप से सहित थी ऐसी वह ब्राह्मी सरस्वती के समान अत्यधिक सुशोभित होती थी।४३। ऐरावत हाथी के समान गमन करने वाले नखरूपी चन्द्रमानों से मनोहर, कमलों को जीतने वाले, धर्म कार्य में प्रगतिशील, उत्तम लक्षणों से युक्त और मरिणमय नूपुरों की झङ्कार से विशाओं के अग्रभाग को बहिरा करने वाले उसके सुन्दर चरण गुजार करने वाले भ्रमरों से युक्त कमलों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥४४-४५॥ इसको दोनों पिण्डरियों में जो शोभा थी वह अन्यत्र कहीं नहीं थी इसलिये कवली आदि के गर्भ में उसका क्या वर्णन किया जाय ? ॥४६॥ वह देवाङ्गनामों के साथ स्पर्धा से ही मानों ऐसे ऊरु युगल को धारण करती थी जो उत्तम कान्ति से युक्त था, स्निग्ध था, स्थूल था, सुख को धारण करने वाला था और अत्यन्त रमणीय था ॥४७।। इसके नितम्ब स्थल को अपना स्थान बनाकर कामदेव ने अतिशय विस्तृत समस्त जगत् को जीत लिया था ॥४८।। उत्तम मेखलारूपो कोट से परिष्कृत तथा सुन्दर वस्त्र से प्राच्छावित उसका कटीमण्डल-कमर का घेरा कामदेव के दुर्ग के समान सुशोभित था ।।४६। जिस प्रकार शरद् ऋतु की नदी भंवर सहित कृशमध्यभाग को धारण करती है उसी प्रकार यह ब्राह्मी पति के क्रीडागृह के समान गहरी नाभि से युक्त कृशमध्यभाग को धारण करती थी ॥५०॥ उसका मनोहर वक्षस्थल स्तनरूप कलशों से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों हाररूपी उत्तम निरिणी
१. इन्दुसम्बन्धिनी २. सच्चरणौ ।