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* श्री पार्श्वनाथ चरित - पर्मानास्त्पपरो जगत्सुहितधर्मस्य बीजं सुदृग्
धर्मे चित्तमनारतं विदधतां धर्माऽस्तु नो मुक्तये ।।१०।। यो विश्वकपितामहो हितकरो विघ्नीघहन्सा भुवि
धर्म धर्मविधायिना निरूपमो विख्यातकीतिर्महान् । अन्तातीतगुणार्णवस्त्रिभुवने 'प्रार्यो नृवेवाधिप
मान्यो भक्तिभरण सोऽस्तु च मया मे विघ्नशान्त्यै शिवः ॥१०२॥ इति भट्टारक श्री सकलकोतिविरचिते श्रीपार्श्वनाथचरित्रे प्रानतेन्द्रविभूतिसुखवर्णनो नाम नवमः सर्गः । से बढ़कर दूसरा जगत् का उत्तम हित करने वाला नहीं है, धर्म का बीज सम्यग्दर्शन है, धर्म में निरन्तर चिस लगायो, हे धर्म ! तुम हमारी मुक्ति के लिये होप्रो ॥१०॥
__जो विश्व के अद्वितीय पितामह है, हितकारी हैं, पृथिवी पर धर्म करने वाले मनुष्यों के धर्म में प्राने वाले विद्यम समूह का घात करने वाले हैं, प्रमातगुणों के सागर हैं, तीनों लोकों में मनुष्य और इन्द्रों के द्वारा परम पूज्य है तथा मेरे द्वारा भक्ति के भार से मान्य हैं वे भगवान वृषभ वेव रूपी महादेव मेरे विघ्नों की शान्ति के लिये हों ।।१०२।।
इस प्रकार भट्टारक श्री सफलकोति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित्र में पानतेन्द्र की विभूति तथा सुख का वर्णन करने बाला नवम सर्ग समाप्त हुआ ॥६॥
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१.प्रपूज्यः ।