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* श्री पार्श्वनाथ चरित - तत्रत्यश्रीजिनानां चैत्यवृक्षे जिनालये । सर्वासां विविधां पूजां करोति प्रत्यहं मुदा ॥८५।। इत्यादिविविधाचारमहापुण्यनिबन्धनः । विधत्तं परमं धर्म दृग्ज्ञानाम्यां स देवराट् ।।६।। स्वचित्त वृषमाधाय भुक्त पुण्योदयापितम् । महत्सुखं स्वदेवीभिः कृत्स्नदुःखातिगं समम् ।।८।। क्वचिन्मनोहरं गीतं शृण्वन् कणंसुखावहम् । पश्यन्नृत्यं क्वचिन्ने त्रप्रियं दिव्याङ्गनोद्भवम् ।।८।। कोहाद्विवनसौधादावसंख्यद्वीपवाधिषु । कुर्वन् क्रीडा स्वरामाभिः क्वचिद्गोष्ठी सुरैःसमम्।। क्वचिद्विमानमारुह्म महीं भ्रमन्निजेंच्छया ।क्वचिद्विलोकयन् दिव्य शृङ्गारं दिवषयोषिताम्।।६।। विलासं च क्वचित्सारं मुखाद्यनमनोहरम् । मज्जन शर्माम्बुधौ शको गतकालं न वेत्ति सः ।।६।। साद्धं हस्तत्रयोन्मेषदिव्यदेहधरो महान् ।नेत्रस्पन्दमलस्वेदनखकेशातिगाङ्गभाक् ॥२।। सहजाम्बरस्रग्भूषाकान्त्युयोतितदिक्चय: ।विशत्यब्धिप्रमाणायुः शुक्ललेश्य: शुभासय: ।।६।। दशमासान्तनिःश्वाससुगन्धीकृतदिग्मुखः । खचतुष्कद्विवन्ति मनसाहारमाहरन् ।।१४।। सम्यग्दर्शन धारण कराता था ॥८४॥ यहां जितने चैत्यक्ष तथा जिनालय थे उनमें स्थित समस्त प्रतिमानों की वह प्रतिदिन हर्षपूर्वक विविध पूजा करता था ॥५॥ महापुण्य के कारणभूत इत्यादि विविध कार्यों से वह इन्द्र सम्यवर्शन और सम्यग्ज्ञान के द्वारा परम धर्म करता था ॥८६॥ अपने हृदय में धर्म धारण कर वह अपनी देवियों के साथ पुण्योदय से प्राप्त समस्त दुःखों से दूरवर्ती महान सुख का उपभोग करता था ।।७।।
वह कहीं तो कानों को सुख देने वाला मनोहर गीत सुनता था, कहीं नेत्रों को प्रिय लगने वाला देवाङ्गनाओं का नृत्य देखता था । कहीं असंख्यात द्वीप समुद्रों के क्रीडा चल तथा बन भवन प्रादि स्थानों में अपनी स्त्रियों के साथ क्रीडा करता था, कभी देवों के साथ गोष्ठी करता था ।।८-६॥ कहीं विमान में बैठ कर अपनी इच्छानुसार पृथियो पर भ्रमण करता था। कहीं देवाङ्गनामों के दिव्य शृङ्गार को देखता था, और कहीं देवाङ्गनामों के मुख प्रावि प्रङ्गों के मनोहर हावभाव को देखता था। इस प्रकार सुखरूपी सागर में निमग्न हुमा वह इन्द्र बीते हुए काल को नहीं जानता था ।।६०-६१॥
वह श्रेष्ठ इन्द्र साढ़े तीन हाथ ऊचे दिव्य शरीर को धारण करता था, नेत्रों की टिमकार, मल, स्वेद, नख तथा केश प्रादि की वृद्धि से रहित शरीर से युक्त था, सहज जन्मजात वस्त्र माला तथा प्राभूषण प्रादि की कान्ति से दिशात्रों के समूह को प्रकाशित करता था, बीस सागर प्रमाण प्रायु वाला था, शुक्ल लेश्या और शुभ प्राशय से सहित था, वश माह के अन्त में श्वासोच्छ्वास से विशात्रों के अप्रभाग को सुगन्धित करता था, दो हजार वर्ष बाद दिव्य अमृतमय तथा अपनी समस्त इन्द्रियों को प्राल्लाद उत्पन्न करने १. वितिसहस्रवर्षान्ते ।