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* श्री पार्श्वनाथ चरित * भाराष्यो जगतां नाथो देवः श्रीजिनपुङ्गवः । मुनीन्द्रा गुरवो वन्द्यास्त्रिशुद्धया पूजनादिभिः।। ६३।। पूजनीया मया सर्व प्रैलोक्यस्थ जिनालया: । अत्रजः पूजनद्रव्यर्भक्त्या तोर्थेशमूर्तय: ॥६४।। कतंव्यानि जिनेन्द्राणां कल्याणान्यखिलान्यपि । कृत्स्नकल्याण सिद्धयर्थं विभूत्या परया मया ॥६५॥ धर्मार्थकाममोक्षाणामादी धमों जिनमतः । तेषां सर्वपदार्थानां निष्पत्त मूलकारणः ॥६६।। अत: पूर्व विधायोच्चैधर्मकार्य सुखाकरम् । पश्चादाज्यं ग्रहीष्यामि महापुण्योदयापितम् ।।६७।। इति मत्वा जगामासौ वापिका स्नानहेतवे । स्वर्णनीरजसंछन्नां जिनध्यानात्तमानसः ॥६८।। तत्र स्नानं विधायोच्चः सोऽगाच्चैत्यालये मूदा। 'वेष्टितोऽमरसंघातः स्वर्णरत्नमये शुभे ॥६६।। विपरीत्य जिनागारं मूर्ना श्रीजिननायकम् । जयनन्दादिशब्दोघने नाम भक्तिनिर्भरः ॥७०।। चकारोच्चस्ततस्तत्र जिनार्चाणारे महामहम् । सर्वाम्युदयसिद्धयर्थ विश्वाभ्युदयकारणम् ॥७१।। गोरपार कर मारनाग. । चन्दन : स्वर्णवभिः सुगन्धीकृतदिग्मृखैः ।।७।। मुक्ताफलमर्यदिव्याक्षतरक्षयसौख्यदः । पुष्पैः कल्पद्र मोत्पन्न ; सुधापिण्डचरूत्कटः ॥७३।। कोनाथ श्री जिनेन्द्र देव मेरे लिये प्राराध्य हैं, सद्गुरु मुनिराज, पूजन प्रादि के द्वारा मन बच्चन काय की शुद्धिपूर्वक वन्दनीय हैं तीन लोक में स्थित समस्त जिनालय और उनमें स्थित तीर्थङ्करों को प्रतिमाएं यहां उत्पन्न होने वाले पूजा के द्रव्यों द्वारा भक्ति पूर्वक मेरे पूजनीय हैं ।।६३-६४।। समस्त कल्याणों को सिसि के लिये मुझे जिनेन्द्र भगवान के सभी कल्याणक उत्कृष्ट विभूति के द्वारा करना चाहिये ॥६५।। धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों में धर्म को ही जिनेन्द्र भगवान ने प्राधि सर्व प्रथम माना है क्योंकि यह समस्त पदार्थों की उत्पत्ति का मूल कारण है ।।६६।। इसलिये सबसे पहले सुख की खानस्वरूप उत्कृष्ट धर्म को करके पीछे महापुण्योदय से प्राप्त राज्य को ग्रहण करूंगा ॥६७।। ऐसा विचार कर यह इन्द्र जिनेन्द्र भगवान के ध्यान में चित्त लगाता हुमा स्नान के हेतु स्वर्णकमलों से प्राच्छावित वापिका में गया ।। ६८॥ वहां स्नान कर यह देव समूहों के द्वारा परिवृत होता हुमा बड़े हर्ष से स्वर्ण रत्नमय शुभ चैत्यालय में गया ॥६६॥
वहां जिन मन्दिर की तीन प्रदक्षिणाएं वेकर भक्ति से परिपूर्ण उस इन्द्र ने जय नन्द प्रादि शब्द समूह के द्वारा मस्तक से श्री जिनेन्द्र देव को नमस्कार किया ।।७।। तदनन्तर वहाँ समस्त प्रभपुवयों की सिद्धि के लिये समस्त प्रभ्युदयों का कारणभूत, जिन प्रतिमानों का महामह नामक पूजन किया ॥७१।। स्वर्णमय झारी की नाल से निकली हुई स्वच्छजल की धाराओं से, दिशाओं के अग्रभाग को सुगन्धित करने वाले स्वर्ण वर्ण पीले रङ्ग के चन्दन से, अविनाशी सुख को देने वाले मुक्तामय विध्य प्रक्षतों से, कल्पवृक्षों से
१. विशिष्टामरसंघातः क. २. बिनप्रतिमानां।