________________
* नवम सर्ग *
[१०६ उद्धतु श्वभ्रपातालारक्षमो धर्मोऽखिलाङ्गिनाम् । दातु लोक्यसाम्राज्यं सुखं सर्व च विश्वजम् ।।५३।। धर्मों हन्तु समर्थोऽत्र समस्तै नोऽतिविद्विषः । कषारिपुभिः साधं धर्मोऽनन्तगुणप्रदः ॥५४।। धर्मः कल्पद्र मोऽनेक संकल्पितसुखप्रदः । धर्मश्चिन्तामणिः सर्वचिन्तितार्थविधायकः ।।५।। पतो धर्मः पिता माता धर्मो बन्धुहितङ्करः । धर्मः स्वामी जगत्पूज्यो धर्मः पापक्षयंकरः ।।५६।। अत्रामुत्र महामित्रं धर्मो दुःखान्तकृत्सताम् । विश्वशर्मविधाता य सहगामी गुणाम्बुधिः ।।५७।। न धर्मसदृशो जातु प्राणिना हितकारक: । पापणजिनेन्द्रोक्तः सत्त्वघातादिदूरगः ।।५।। दृङ मूलो भव्यलोकोधराराध्योऽनन्तशर्मकृत् । त्यसले मुनीन्द्रश्च सारै रत्नत्रय महान् ॥५६॥ उत्पद्यतेऽखिलोधर्मो वृत्तन मुक्तिदायकः । तपसा वात्र देवानां जातु तत्सुलभं न हि ।।६०।। तथा रागानयो नैव शाम्यन्ते 'वृत्तवारिणा । विना जन्मशतरत्र किं कुर्मस्तदभावतः ॥६॥ मतस्तत्वार्थश्रद्धा मे श्रेयसी स्वहितप्रदा । शङ्कादिदोषनिमुक्ता गुणाष्टकविभूषिता ।।६२।। धर्म प्राणियों को दुर्गति से निकाल कर स्वयं इस स्वर्गलोक में अथवा सर्वजन यन्दित मोक्ष में धारण करता है--पहुँचा देता है ॥५२॥ धर्म, समस्त प्राणियों को नरकरूपी पाताल से निकालने तथा तीन लोक का राज्य और संसार का समस्त सुख देने के लिये समर्थ है ॥५३॥ इस जगत् में धर्म, कषायरूपी शत्रुओं के साथ समस्त पापरूपी शत्रुनों को नष्ट करने के लिये समर्थ है ॥५४॥ धर्म अनेक संकल्पित सुखों को देने वाला कल्पवृक्ष है, तथा धर्म ही समस्त चिन्तित पदार्थों को देने वाला चिन्तामणि रत्न है॥५५॥ इसलिये धर्म पिता है, माता है, धर्म हितकारी बन्धु है, धर्म जगत्पूज्य स्वामी है, धर्म पाप का क्षय करने पाला है ॥५६॥ धर्म इस लोक तथा परलोक में महामित्र है, धर्म सत्पुरुषों के दुःख का अग्त करने वाला है, समस्त सुखों का कर्ता है, साथ जाने वाला है और गुणों का सागर है ।।५७।। जो पाप का शत्रु है, जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा हुआ है तथा जीव हिंसा आदि से दूरगामी है ऐसे धर्म के समान जीवों का हित कारक दूसरा कोई नहीं है ।५८। सम्यगवर्शन जिसका मूल है, जो भव्य जीवों के समूह द्वारा पाराधना करने के योग्य है, अनन्त सुख को करने वाला है, सारभूत रत्नत्रय से महान् है, तथा सम्यक् चारित्र और सम्यक तप के द्वारा मुक्ति को देने वाला है ऐसा सम्पूर्ण धर्म निर्ग्रन्थ मुनिराजों के द्वारा उत्पन्न किया जाता है। वह देवों को कभी सुलभ नहीं है ।।५६-६०॥ सम्यक् चारित्ररूपी जल के बिना रागरूपी अग्नियां संकड़ों जन्म में भी शान्त नहीं की जा सकती हैं परन्तु यहां उसका प्रभाव होने से हम क्या कर सकते हैं ? ॥६१।। इसलिये शङ्कादि दोषों से रहित तथा पाठ गुरणों से विभूषित श्रेष्ठ तस्वार्थ श्रद्धा ही मेरे लिये हितकारी है ।।६२॥ त्रिलो
१. चारित्रजलेन ।