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* श्री पाश्वनाथ चरित. रत्नत्रयं जगत्सारं सर्वेनोध्वान्तभास्करम् । पाराधितं मनःशुद्धया केवलज्ञानकारकम् ।।४२।। कालत्रयभवा योगा: शीतातापादिसंकुलाः । दुःकरा मोक्षदातारः कृता ध्यानादिभिताः ।।४३॥ रागद्वेषमहामोहमदादिशत्रवोऽखिलाः ।हता निर्वेदखड्गेन दुराचारादिभिः समम् ।।४४।। दुस्सहाः सहिताः सर्वे क्षुत्तृषादिपरीषहाः । भाविता भावना: सर्वास्तरित्यागमवारिधिम् ।।४।।
खारण्यभ्रमणासक्तो मनोदन्ती नियन्त्रितः । ज्ञानशृङ्खलया वैराग्यस्तम्भे स्ववशीकृतः ॥४६।। व्युत्सर्गासनयोगायः कृत: कायः स्थिरो महान् । दृषन्मूतिरिवात्यंत वचो मोने प्रतिष्ठितम् ।।४।। माराधितो जगन्नाथोऽनाईद्देवः सतां गुरुः । अनन्यशरणीभूय विश्वकल्याणकारकः ॥४८|| तीर्थकृद्धिकतृ रिण कारणान्यपि षोडश । भावितानि भया कल्याणादिशर्माकराग्यपि ॥४६।। इत्याद्याचरणैः प्राग्यः कृतो धर्मो मयानघः । शकराज्यादिकं नूनं तस्येदं प्रवरं फलम् ॥१०॥ महो धर्मस्य माहात्म्यं पश्येदं ह्य पमाच्युतम् । येनाहं स्थापितोऽप्यत्र नाकराज्ये सुखावे ।।५।। उद्धृत्य दुर्गतेनूनं धर्मों धारयति स्वयम् । प्राणिनो नाकलोकेऽस्मिन् मोक्षे वा विश्ववन्दिते । ५२। करने के लिये सूर्य है तथा केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाला है ऐसे रत्नत्रय की मैंने मन की शुद्धि द्वारा प्राराधना की थी ॥४२॥ शीत तथा प्राताप प्रादि की बाधा से युक्त पतिशय कठिन, मोक्ष को देने वाले तथा ध्यान प्रादि से सहित तीन काल सम्बन्धी मोगों को मैंने धारण किया था ॥४३।। वैराग्यरूपी खड्ग के द्वारा दुराचार प्रादि के साथ राग द्वेष महामोह सथा मद आदि समस्त शत्रुओं को नष्ट किया था ॥४४॥ अत्यन्त कठिन क्षुधा तृषा पादि सब परिषह सहन किये थे, प्रागमरूपी समुद्र को तैर कर समस्त भावनाओं का चितवन किया था ।।४।। इन्द्रियरूपी वन में भ्रमण करने वाले मनरूपी हाथो को ज्ञानरूपी सांकल से वैराग्यरूपी खम्भे में बांधकर अपने अधीन किया था ॥४६॥ कायोत्सर्ग, प्रासन तथा योग प्रादि के द्वारा अपने महान शरीर को पाषाण को मूर्ति के समान अत्यन्त स्थिर किया था और वचन को मौनरूप में प्रतिष्ठित किया था ।।४७।। अनन्यशरण होकर जगत् के स्वामी, सत्पुरुषों के गुरु तथा सब का कल्याण करने वाले प्ररहन्त देव की पाराधमा की थी ॥४८॥ तीर्थकर नाम कर्म की वृद्धि करने वाली, तथा कल्याणक प्रावि सुखों की खान स्वरूप सोलह कारण भावनाओं का भी मैंने चिन्तवन किया था ।।४६॥ इत्यादि प्राचरणों के द्वारा पूर्वभव में मैंने जो निर्दोष धर्म किया था, जान पड़ता है यह इन्द्र का राज्याविक उसी का उत्कृष्ट फल है ।।५०॥
महो ! धर्म का यह अनुपम उत्कृष्ट माहात्म्य देखो, जिसने मुझे सुख के सागर स्वरूप इस स्वर्ग के राज्य पर स्थापित किया है-लाकर बैठा दिया है ॥५१॥ निश्चित ही १. निखिलपापतिमिरसूर्यम् २. इन्द्रियवनभ्रमणासक्तः ३ पाषाणमूतिरिव ।