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* प्रष्टम सर्ग. चर्मबीनांशुके मित्रे रिपो शतरेऽखिले । मरणे जीवितादो समतां सोऽधाग्छमी हृदि ।।८।। चतुविशति तीर्थे शामनन्तगुए शालिनाम् । तद्गुणोघः स्तवं कुर्यात्तद्गुरणार्थी स प्रत्यहम् ।।८।। एकतीर्थकृतः पञ्चसत्परमेष्ठियोगिनाम् । त्रिकालवन्दनां दक्षोऽवश्यं स कुरुते विधा ।।१०।। कृतातीचारशुद्धयर्थ प्रतिक्रमणमन्वहम् निन्दागर्हणाभ्यां स विधत्त दोषनाशकृत् ।।११।। प्रयोग्यद्रव्यक्षेत्रादीनां ग्रोग्यानां सवानिशम् । तप:सिद्धधं स्वसामर्यात्प्रत्याख्यानं भजेम्महत् ।। "पूर्वकृत्यापहान्य) पक्षमासादिगोचरम् । ग्युत्सर्ग भजते नित्यं त्यक्तदेहोऽघ घातकम् ॥१९॥ इसीपानि परामजसा । प्रमादेन विना कुर्यास्काले काले स यत्नतः ।।६।। मार्गप्रभाव ना सोऽधाजने धर्म सुखार्णवे । लोके भक्त्या तपोज्ञानाद्याचारदुं करैः सदा ।।६।। तपोऽधिकमुनीन्द्राणां पारगाणा श्रुताम्बुधेः । धत्ते प्रवचनस्यासी वात्सल्यं विनयादिभिः ।।६।। इमाः म भावयामास भावना: षोडशानिशम् । अनन्तशर्मदा: कौस्तीर्थकृश्नामकर्मणः ॥६७11
धारण करने वाले वे भगवान् निन्दा और स्तुति, पाषाण और सुवर्ण, श्मशान और सुन्दर महल, पलंग और कीटों का अग्रभाग, जीर्ण शरीर और दिव्य स्त्री, चमं और चीनवस्त्र, मित्र और शत्रु, समस्त सुख और दुःख, तथा मरण और जीवन के विषय में सदा हृदय में समता भाव धारण करते थे ।।८७-८८॥ प्रतिदिन उनके गुणों के इच्छुरू होते हुए अनन्त गुणों से सुशोभित चौबीस तीर्थकरों का स्तवन उनके गुरण समूह का उच्चारण करते हुए करते थे ।।६।। अतिशय कुशल मुनिराज एक तीर्थकर और पांच परमेष्ठियों की त्रिकाल बन्दमा मन बचन काय से अवश्य ही करते थे ।।६। दोषों का नाश करने वाले वे मुनिराज किये हुए प्रतितारों की शुद्धि के लिये निम्बा और गर्दा के द्वारा प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते थे ॥५१॥ वे तप की सिद्धि के लिये अपनी सामर्थ्य को अनुसार अयोग्य प्रथवा योग्य तथ्य क्षेत्र आदि का बहुत भारी प्रत्यास्यान करते थे अर्थात् अयोग्य घ्य क्षेत्र प्रादि का त्याग तो करते हो थे किन्तु यातायात सम्बन्धी विकल्प को कम करने के लिये योग्य द्रध्य क्षेत्रावि में भी पाने जाने का परिमारण करते थ ॥१२॥ पूर्वकृत पापों को नष्ट करने के लिये थे शरीर से ममताभाव छोड़ कर निरन्तर पक्ष माह आदि विषयक, पापघातक व्युत्सर्ग कायोत्सर्ग करते थे ।।१३॥ इस प्रकार वे प्रमाद रहित होकर समय समय पर यत्नपूर्वक सम्यक प्रकार से निरतिखार पडावश्यकों का पालन करते थे ।।१४।। वे लोक में सबा भक्तिपूर्वक प्रतिशय कठिन तप तथा ज्ञान आदि प्राचारों के द्वारा सुख के सागर स्वरूप जैनधर्म में भाग प्रभावना करते थे ।।१५।। वे शास्त्र रूपी समुद्र के पारगामी तपस्वी मुनियों को विनय प्रादि के द्वारा प्रवचन वात्सल्य को धारण करते थे ।।६६।। इस प्रकार के निरन्तर अनन्त सुख को
है सदियो ख: २. पूर्वकृत्वापहारार्थ खः ।