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+भी पार्श्वनाथ चारत *
नवमः सर्गः धीमते विश्वनाथाय विश्वदुःखाग्निवाचे' । त्रिजगत्स्वामिने मूनां श्रीपाश्र्वाय नम: सदा ।।१।। प्रथासो प्राप्य संपूर्णयौवनं घटिकादयात् । उपपादशिलागर्भ रत्नरश्मिसमाफुले ॥२।। उत्थाय दिव्यशय्यायाः सर्वाभरणमण्डितः ।वीक्षते स्म दिश: सर्वा बह्वाश्चयंसुमानसः ।। ३।। कोऽहं कस्मादिहायातः कोऽयं देश: सुखाकरः । केन वा कर्मणा नीतः स्वप्नो वायं ममोजित: ।।४।। अथवा विजगन्नाथसेव्यो देशो महानयम् । सर्वशर्माकरीभूतो विश्वविद्धिसागरः ।।५॥ इमानि स्वविमानानि पुरषामभृतान्यपि । सर्वश्रीसंकुलान्येव सन्ति दृश्यानि भूतले ।।६।। स्वर्णरत्नमयास्तुङ्गा इमा: प्रासादपंक्तयः । मनोहराः प्रहश्यन्ते दिव्यस्त्रीवृन्दसंकुला: ।।७।। उत्सङ्गोऽयं महान दिव्यसभामण्डप एव हि । मणितेजोहतध्वान्तो देवानीकादिदुर्गमः ।1।। इदं मिडासन रम् मे हमिवान जम ! इदं च नर्तनं प्रेक्ष्यं धध्यमीतचयं महत् ॥६॥
नवम सर्ग जो अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी से सहित हैं, सब के नाथ है, समस्त दुःखरूपी अग्नि को बुझाने के लिये मेघ है, और तीनों जगत् के स्वामी हैं उन श्री पारनाथ को मैं शिर से सदा नमस्कार करता हूँ ॥१॥
तदनन्तर वह इन्द्र रस्नों की किरणों से व्याप्त उपपाद शिमा के मध्य में दो घड़ी के भीतर संपूर्ण यौवन प्राप्त कर दिव्य शय्या से उठा, और समस्त प्राभूषणों से सुशोभित सथा समस्त प्राश्चयों से परिपूर्ण चित्त होता हुआ सब विशात्रों की मोर देखने लगा 1॥२-३।। मैं कौन हूं? यहां कहां से पाया है ? सुख की लान स्वरूप यह देश कौन है ? किस कर्म से यहां लाया गया हूं? प्रयदा यह क्या मेरा प्रबल स्वप्न है ? अथवा यह त्रिजगत् के स्वामियों के द्वारा सेवनीय, समस्त सुखों की खान और संसार की समस्त ऋषियों का सागर महान देश है ? ॥४-५॥ नगर और महलों से परिपूर्ण तथा समस्त लक्ष्मी से युक्त ये स्वर्ग के विमान पृथिवी तल पर दिखाई दे रहे हैं ॥६॥ ये देवाङ्गनाओं के समूह से युक्त, सुवर्स रत्नमय ऊंची ऊंची मनोहर महलों की पंक्तियां दिखाई दे रही है ।।७।। मरिणयों के तेज से अन्धकार को मष्ट करने वाला तथा देवों की सेना प्रादि से दुर्गम यह ऊंचा बहुत भारी सभा मण्डप ही है ॥८॥ यह मेरु शिखर के समान त सुन्दर सिंहासन है, यह सुन्दर गीत समूहों से युक्त, देखने योग्य बहुतभारी
१ मेघाय २. श्रन्यं गीतपय मा.।