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* श्री पाश्वनाथ चरित * तत्र भुक्त चिरं घोरं दुःखं वाचामगोचरम् 1 तीव्र प्राग्वर्णनोपेतं छेदनादिभवं परम् ।।११७।। कृष्णलेश्योऽतिरोदात ध्यानध्याता सुलातिगः । सर्वाङ्गपीडितः सप्तदशसागरजीवितः ॥११८।।
शार्दूलविक्रीडितम् एव 'सरक्ष मयामराखिलनुतं भोगोपभोगाकर,
प्रातः शक्रपदं गुनिश्च विमलं कोपाच्च वैराशुभात् । सिंहः प३ भ्रमतीव दुःखकलितं ज्ञात्वेसि हे धोधना,
हत्वा कोषमसाररमशुभ यस्ताद्भजव्वं क्षमाम् ।।११६।। सर्वानर्थपरम्पर पंणपरं दुःखार्णवे मज्जकं,
धर्मारण्यताशानं कुरनिट भाभाकर ग्वान्ययोः । कृत्स्नाधाकरमात्मनाशजनक शर्माद्रिवजोपमं,
कोपारि सुदुधा हनन्तु ? (जयन्तु) कुरिपु यत्नेन भान्यायुधः ।। १२०॥
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यहां यह चिरकाल तक पूर्व वर्णना से सहित, छेदन भेवन प्रादि से उत्पन्न होने वाले पचना. गोचर प्रत्याधिक तीव्र घोर दुःख भोगने लगा ॥११७॥ वह नारको कृष्णलेण्या का धारक था, तीव्र रोड़ और प्रासंध्यान से सहित था, सुख से शून्य था, सर्वाङ्ग से पीडित था और सत्तरह सागर की प्रायु वाला था ॥११८॥
इस प्रकार उत्तम क्षमा से मुनि समस्त देवों के द्वारा स्तुत तथा भोगोषभोगों की जान स्वरूप निर्मल इन्त्र पद को प्राप्त हुए और सिंह बेर के कारण प्रशुभ क्रोध से प्रत्यधिक दुःख युक्त नरक को प्राप्त हुना—ऐसा जान कर हे विद्वज्जन हो ! असार घर से पुक्त कोष को नष्ट कर यस्न पूर्वक अमा को माराधना करो ॥११॥ जो समस्त प्रनों की. परम्परा को प्रदान करने में तत्पर है, दुःखरूपी सागर में उबाने वाला है, धर्मरूपी वन की अग्नि है, खोटो रति को देने वाला है, निज पर को वाधा करने वाला है, समस्त पापों को स्थान है, प्रात्मनाश का जनक हैं, तथा सुखरूपी पर्वत को वज्र तुल्य है ऐसे क्रोधरूपी दुष्ट शत्रु को हे विद्वज्जन हो ! क्षमारूपी शस्त्रों के द्वारा यत्न पूर्वक नष्ट करो ।।१२०।। जो पाप को नष्ट करने वाली है, धर्म की खान है, शिवसुख की जननी है, स्वर्ग की सीडी स्वरूप है, सबके द्वारा पूज्य है, विश्ववन्ध है, समस्त गुणों को भण्डार है, क्लेश और संताप से दूर है, नरक रूपी घर की अर्गला है, समस्त श्रुत ज्ञान को प्रकट करने वाली रे
१.म क्षमया स्व.।