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* श्री पार्श्वनाथ परित * तत्फलेन बबन्धाशु दृग्विशुद्धिविभूषितः । तीर्थकृष्नामकर्मासो बैलोक्यक्षोभकारणम् ॥१८॥ अनन्तमहिमोपेतं नृसुराधिपवन्दितम् । जगत्त्रयहितं पूज्यं मुक्तिकान्ता विवाहकत |||| एकदा विहरन् देशानटम्यादीन्महातपाः ।धीरः क्षीरवने 'सोज्गादेकाक्यतिभयङ्करे ।।१०।। प्रायोपगमनास्यं संशाप्य संन्यासमद्भतम् । प्रतिमायोगदामाय त्यक्त्वा कायादिकोपधिम् । १०१। अभीप्सुः सिद्धिकान्तां स निर्ममत्वो जितेन्द्रियः । कायोत्सर्गेण तत्रास्थास्थिरोऽचलनिभो महान्। १०२। अथ स प्राक्तन: पापी कमठोऽधविपाकतः । प्रच्युत्य नरकात्तत्र रौद्रः कण्ठीरखोऽभवत् ॥ १०३।। नि:स्पृहं ध्यानसंलीनं त्यक्तकार्य शुभाशयम् । जिनपादाब्जसंसक्त स्थिरं पर्वतराजवत् ॥१०४।। कषायाक्षारिजेतारं कर्मणो जेतुमुद्यतम् । भ्रमन सिंहो वनं यायात्त ददर्श मुनीश्वरम् ।।१०५।। तत: प्राग्भवबैरेण प्राप्य कोपं हि दारुणम् । अग्रहीत्स मुनेः कण्ठं तीक्ष्णदंष्ट्र : क्षुधातुरः ।।१०६॥ देने वाली तथा तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध कराने वाली इन षोडश कारण भावनामों का मिरन्तर चिन्तवम करते थे ॥६॥ दर्शन विशुद्धि से विभूषित उन मुनिराज ने शीघ्र ही पूर्वोक्त भावनाशों के फलस्बहर तीन लोक सोभका कारण तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध किया । वह तीर्थकर पद अनन्त महिमा से सहित है, मनुजेगा तथा देवेन्द्रों के द्वारा मक्षित है, लीनों जगत् का हितकारी है, पूज्य है और मुक्तिरूपी काता के विवाह को करने वाला है ॥१८-९६॥
नानादेश तथा अटवी प्रादि में विहार करते हुए वे महातपस्वी धीर धीर मुनि एक समय अकेले ही प्रत्यन्त भयंकर क्षीर वन में पहुंचे ॥१००। वहां उन्होंने पाश्चर्यकारी प्रायोपगमन नामक संन्यास प्राप्त किया और शरीरादिक उपाधि का स्याग कर प्रतिमायोग चारण किया ॥१०१॥ जो मुक्तिरूपी वधू के इच्छुक थे, सब प्रकार की ममता से रहित
तथा जिन्होंने इग्नियों को जीत लिया था ऐसे मुनिराज कायोत्सर्ग द्वारा पर्वत के समान प्रत्यन्त स्थिर हो गये ।।१०२।।
प्रधानन्तर वह पहले का पापी कमठ पापोवय के कारण नरक से निकल कर उसी बन में कर सिंह हुमा पा ॥१०३॥ वन में भ्रमण करते हुए सिंह ने उन मुनिराज को देखा जो निःस्पृह थे, ध्यान में लीन थे, शरीर की ममता को छोड़ चुके थे, सुभपरिणामों से पुक्त थे, जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में संलग्न थे, पर्वतराम के समान स्थिर थे, कषाय मोर इन्द्रिय रूपी शत्रुमों को जीतने वाले थे, तथा कर्मो को जीतने के लिये उपत थे॥१०४-१०५॥ तदनन्सर पूर्वभय के बर से उस क्षुधातुर-मूह से पीडित सिंह ने तीन
1. मोऽयादेकाक्य स. २. सिंहः ।