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* श्री पार्श्वनाथ चरित
तसोऽसौ भावमेत्रित्यं कारणान्यपि षोडश | बन्धकारणभूतानि तीर्थ कृनामकर्मणः ॥५॥ देवलोकारूपमूढत्वं संमयाख्यमिति' त्रिघा 1 मूढत्वं मूढलोकार्ना महापापासवाकरम् ॥६०॥ सज्जा तिसत्कुलैश्वर्य रूपज्ञान तपोबलाः | शित्पश्चेति सदा प्रष्टौ स्याज्या घातितोऽशुभाः ६१ मिथ्याज्ञानचारित्राणि सत्संसेविनो जनाः 1 इत्यनापशनं हेयं षड्विधं श्वभ्रकारणम् ॥६२॥ श्री जिने गुरुसिद्धान्ते सूक्ष्मतत्वविचारणे । हत्वा शङ्कां विधत्तेऽसौ निःशङ्कां मुक्तिमातरम् ॥ ६३ ॥ त्यक्त्वा कांक्ष सुभोगादौ स्वगंराज्यादिगोचरे । तपसारातिघाते वाऽधाभिःकांक्षां स मोक्षदाम् ॥६४॥ मलजल्लाविलिप्ताङ्ग स्वाजसंस्कारवजिते । सन्मुनौ विचिकित्सां हत्वाधानि विचिकित्सताम् । ६५ । धर्म तत्वे गुरौ दाने देवे शास्त्रेऽशुभादिके मूडभाव प्रत्यासी प्रमूढत्वं दधेऽनिशम् ।। ६६ ।। जिनेन्द्रशासनस्याशु बालाशक्तजनाश्रयात् | श्रागतं दोषमाच्छाद्य ह्य ुपगूहनमाचरेत् ॥६७॥ हग्यतादेः परिज्ञाय चलतो धर्मदेशनै: । तद्धर्मादी स्थिरीकृत्य संस्थितीकरणं भजेत् ॥ ६८ ।
तदनन्तर वे निरन्तर तीर्थंकर नाम कर्म के बन्ध में कारणभूत सोलह कारण भावनाओं की भावना करने लगे ॥५६॥ वेब सूढता, लोक मूढता और धर्म भूढता (गुरुमूढता ) ये तीन मूढताए हैं जो मूढ मनुष्यों के महान् पापास्रव की खान है ॥६०॥ सत् जाति, सत्कुल, ऐश्वर्य, रूप, ज्ञान, तप, बल और शिल्प ये सम्यग्दर्शन को घातने वाले माठ अशुभ मद छोड़ने के योग्य है ।।६१॥ मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और इनके सेवक ये नरक के कारणभूत यह प्रनायतन छोड़ने के योग्य हैं ।। ६२ ।। वे मुनिराज श्री जिनेन्द्र वेव, निम्यगुरु, जनसिद्धान्त और सूक्ष्म तत्वों की विचारणा में शङ्का को नष्ट कर मुक्ति की मातारूप निःशङ्क श्रद्धा को धारण करते थे अर्थात् वे सम्यग्दर्शन के निःशङ्कित पङ्ग का अच्छी तरह पालन करते थे ।। ६३ ।। वे स्वगं तथा राज्यादि विषयक उत्तम भोगाविक में अथवा तप के द्वारा शत्रुओंों का घात करने में कांक्षा का त्याग कर मोक्ष को देने बाली निःकांक्ष श्रद्धा को धारण करते थे अर्थात् वे सम्यग्दर्शन के निःकांक्षित मङ्ग की अच्छी तरह रक्षा करते थे ।। ६४ ।। जिनका शरीर मल तथा जल्ल शादि से लिप्त है और जो अपने शरीर के सस्कार से रहित हैं ऐसे उत्तम मुनि में ग्लानि को नष्ट कर वे निधिचिकित्सा अङ्ग को धारण करते थे ।। ६५ ।। वे अशुभ धर्म, प्रशुभ तर, अशुभ गुरु, अशुभ दान, अशुभ देव और प्रशुभ शास्त्र में मूढता का त्याग कर निरस्तर प्रमूढ दृष्टि अंग को धारण करते थे ।। ६६ ।। वे बालक अथवा शक्तिहीन मनुष्यों के माश्रय से होने वाले जिन शासन के दोष को शीघ्र ही छिपा कर उपगूहन अङ्ग का श्राचरण करते थे ।। ६७ ।। ये सम्यग्वर्शन तथा व्रताबिक से विचलित होते हुए लोगों को जान कर धर्मोपदेश के द्वारा उन सद्धमं प्रादि में स्थित करते थे। इस प्रकार वे स्थितीकरण प्रङ्ग की
१. संयमाख्य २, ग्रभ्यग्दर्शन घातका ३ प्रकृष्टता