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* सप्तम सर्ग *
इत्यादिगुणभूषाया नगर्याः श्रेयसा पतिः । वज्रशहुनृपो नाम्ना बभूव बलवान्महान् ॥१६॥ काश्यपान्वयसंभूत इक्ष्वाकु वंशरवांशुमान् । जैनधर्मरतो दानपूजावतगुगान्विता ॥२०॥ गुरुभक्तः सदाचारी न्यायमार्गप्रवर्तकः । भूषरगर्वमन : सर्वैः सोऽभाच्चकीव पुण्यवान् ।।२१।। प्रभरी महादेवी तस्याभूत्प्राण बल्लभा । पुण्य लक्षण संपूगर्भा दिव्यरूपोपलक्षिता ।।२२।। प्रानन्दाख्यस्तयोः सूनुः पुण्यपाकेन रूपवान् । व्युत्वा ग्रे वेयकात्मोऽहमिन्द्रो दिव्यगुरणोऽभवत् ॥२३॥ तत्पिता स्वजनैः साद्धं जिनेन्द्राणां जिनालये 1 महापूजां मृदाभूत्या पुत्रजातमहोत्मवे ॥२४।। चकार विश्वमाङ्गल्यवृद्धये शुभद्धिनीम् । सर्वाभ्युदयकीच कृत्स्नानिष्टविघातिनीम् ।।२१। बाल पन्द्र इवापासी वृद्धि स्वावयवैः समम् । तद्योग्यदुग्धपानाद्य : पित्रोः संवर्द्ध यन्मुदम् ।।२६।। कौमारत्वं कमात्प्राप्य वस्त्राभरणकान्तिभिः । व्यञ्जनेर्लक्षण: सोऽभाद्धीरोऽसुरकुमारबत् ११२७।। ततः कृत्वा जिनेन्द्रज्ञानगुरूणां प्रपूजनम् । कलाविज्ञानचातुर्य शारत्रविद्यादि सिद्धये ॥२८।।
___ इत्यादि गुणरूपी प्राभूषणों से सहित उस अयोध्या नगरी का स्वामी वह बनबाहु राजा था जो कल्यारणों का स्वामी था, बलवान तथा महान् था ॥१६॥ जो काश्यपवंश में उत्पन्न हुना था, इक्ष्वाकुवंशरूपी अाकाश का सूर्य था, जैनधर्म में रत था, दान पूजा तथा व्रतरूप गुणों से सहित था, गुरुभक्त था, सदाचारी था, न्यायमार्ग को प्रवर्ताने वाला था, तथा पुण्यवान् था ऐसा वह वज्रबाहु राजा समस्त वस्त्राभूषणों से चक्रवती के समान सुशोभित होता था ।।२०-२१॥ राजा वस्रबाहु को प्राणवल्लभा पुण्य लक्षणों से परिपूर्ण तथा दिव्य रूप से सहित प्रभङ्करी महादेवी यो ।।२२।।
दिव्य गुणों को धारण करने वाला वह अहमिन्द्र ग्रंवेयक से च्युत होकर पुण्योदय से उन्हीं वस्रबाहु और प्रभकरी महादेवी के प्रानन्द नामका रूपवान पुत्र हुप्रा ॥२३॥ उसके पिता ने पुत्र जन्म के महोत्सव में समस्त मङ्गलों को वृद्धि के लिये अपने कुटुम्बी जनों के साथ जिन मन्दिर में हर्ष तथा वैभव से जिनेन्द्र भगवान की महा पूजा की । वह महा पूजा शुभ को बढ़ाने वाली थो, सब अभ्युदयों को करने वाली थी तथा सम्पूर्ण अनिष्टों का विघात करने वाली थी ।।२४-२५।। माता पिता के हर्ष को बढ़ाता हा वह पुत्र उसके योग्य दुग्धपान प्रादि के द्वारा अपने अवयवों के साथ बालचन्द्र द्वितीया के चन्द्रमा के समान वृद्धि को प्राप्त होने लगा ।।२६॥ वह धीर धीर बालक क्रम क्रम से कुमारावस्था को प्राप्त कर वस्त्र, प्राभूषण, कान्ति, ध्यञ्जन तथा लक्षणों से असुर कुमार के समान सुशोभित हो रहा था ॥२७॥
तदनन्तर शुभलग्नादि के होने पर पिता ने उस बुद्धिमान धर्मात्मा पुत्र को कलाविज्ञान सम्बन्धी चातुर्य तथा शास्त्र विद्या मादि को सिद्धि के लिये देव शास्त्र गुरु की पूजा
१. इक्ष्वाकुवं मनभोदिवाकरः।