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* सप्तम सर्ग * शाम्येन विद्यते नूनं बहुचिन्ताधकारिणी । महामोहकरानेकानर्थखानिः शुभाहते ॥11 एकं सुदानपूजाजिनार्याचैत्यालयादिकम् । मुक्त्वा श्रियोऽस्ति किञ्चिन्न सारं वा शुभकारणम्४१ पतो गजसुतैः प्राप्य बिय सावधकारिणीम् । कर्तव्यं दानपूजाजिनालया दिकं सदा ॥४२।। महापूजा विधेहि ' त्वं महीप श्रीजिनेशिनाम् । जिनागारे स्वधर्माय नन्दीश्वरदिनाष्टके ।।४३।। मन्त्र्युपदेशमादाय विभूत्या परया मृदा 1 करोति विविधां पूजां फाल्गुने मासि भूपतिः ।।४४।। जिनधामनि तीर्थेशां महाश्चर्यकरां पराम् । उपदेशं शुभं दक्षाः कि न कुर्वन्त्यहो सताम् ।।४।। एतस्मिन्नेव प्रस्तावे पूजां द्रष्टु मुदा गतः । विपुलादिमतिनाम्ना गणाधीशो गुणाकर: ।।४।। स्वालि कुड़मलीकृत्य नत्वा तच्चरणाम्बुजम् । त्रि:परीत्य विधायाची भूपोऽस्थासत्पदान्तिकम् ।।४।। दिव्यवाण्या गणाधीमोऽवदद्धर्म सुखार्णयम् । सर्वसत्त्वहितं दानपूजादिजं नृपं प्रति ॥४।। राजन् धर्मोऽत्र कर्तव्यो दृग्नताचरणः परैः । गुणशिक्षाव्रतः सर्वः पात्रदानैजिनार्चनः ॥४६11 गृहस्था येन यान्त्याशु नाकं घोडशक भुवि । निर्वाणं च क्रमाद् दृष्टिभूषिताः शर्मवारिधिम् ।।५०॥ यह राज्यादि विषयक लक्ष्मी निश्चय से बिजली के समान चञ्चल है, अत्यधिक चिन्ता
और पाप को करने वाली है, शुभ कार्यों के बिना महान् मोह को उत्पन्न करने वाले अनेक प्रनों की खान है ॥३६-४०॥ मात्र पात्रदान, पूजा, जिन प्रतिमा और चैत्यालय लाधि को छोड़कर लक्ष्मी का ऐसा कुछ भी सारभूत कार्य नहीं है जो शुभ का कारण हो ॥४१॥ इसलिये राजपुत्रों के साथ सावध कार्य कराने वाली लक्ष्मी को पाकर सवा दान पूजा जिनालय और प्रतिमानों का निर्माण करना चाहिये ॥४२॥ हे राजन् ! तुम नम्वीश्वर पर्व के पाठ दिनों में जिन मन्दिर में श्री जिनेन्द्र भगवान की महापूजा करो ॥४३॥
मन्त्री का उपदेश पाकर राजा ने फाल्गुन मास के प्राने पर जिन मन्दिर में उत्कृष्ट विभूति के साथ हर्ष पूर्वक जिनेन्द्र भगवान को महान् प्राश्वयं उत्पन्न करने वाली नाना प्रकार की उत्कृष्ट पूजा को सो ठीक ही है क्योंकि समर्थ मनुष्य सत्पुरुषों के शुभ उपदेश को पाकर क्या नहीं करते हैं ? अर्थात् सब कुछ करते हैं ॥४४-४५।। इसी अवसर पर पूजा देखने के लिये गुणों को खान स्वरूप विपुलमति नामक गणधर भी यहां हर्षपूर्वक पधारे ।।४६॥ राजा ने हाथ जोड़कर उनके चरण कमलों को नमस्कार किया, तीन प्रदक्षिणाए दी, पूजा की और पश्चात उनके चरणों के समीप खड़ा हो गया ॥४७॥ गणधर ने राजा के प्रति मधुर वाणी से सर्वसत्त्वहितकारी, दान पूजा प्रावि से उत्पन्न तथा सुख के सागर स्वरूप धर्म का उपदेश दिया ।।४।।
हे राजन् ! इस जगत् में श्रेष्ठ सम्यग्दर्शन, व्रताचरण, समस्त गुणवत शिक्षाबत, पात्रदान और जिन पूजन के द्वारा धर्म करना चाहिये ।।४।। जिस धर्म के द्वारा सम्यग्दृष्टि १. विधेहि भो महिमा स्व. ग. २. षोडशम क० ६० गः ।