________________
८८ ]
* श्री पार्श्वनाथ चरित. मुनिकेवलितीर्थेशां ह्यनन्स गुणशालिनाम् । तद्गुणाय विधत्तेऽसौ सदा पून िनमस्कियाम् ।१०। प्रष्टभ्यां च चतुर्दश्यां भजते प्रोषधं' सुधीः । त्यक्त्वा राज्यादिकारम्भान सोऽनिशं कर्महानये।६।। कालत्रये सदा दध्यान्मुक्त्यै सामायिकं मुदा । मुनीन्द्र सदृशो भूत्वा त्यक्तदोषं सुखार्णवम् ।।१२।। इत्याचाचरण: सारै नाभेदैः शुभाकरः । अरणवतेगुणात्यैश्च सर्व शिक्षानतः सदा ।।६३॥ बानपूजोपवासाजिनभक्त्याक्षनिग्रहः । गुर्वादेः सेवया शुद्धमनोवाक्कायकर्मभिः ॥१४॥ करोति विविध धर्म स्वर्गमुक्तिगृहाङ्गणम् । प्रत्यहं मुक्तये भूपो विश्वसौख्याकरं परम् ॥१५॥ धर्मादर्थस्तसः कामः कमान्मोक्षपय जायते । इति मत्वा नराधीशो व्यधाम स सर्वदा ।।६।। सामन्तभूमिपः सेव्यमानो मन्ठ्यादिभिः सदा । निमग्नः शर्मवाओं स गतं कालं न वेत्ति च ॥१७||
मालिनी इति सुकृतविपाका हिट्यसौख्यं स भुक्त, क्षणभवमति रम्यं राज्यभूत्यादिजातम् । इति विबुधजना ज्ञात्वा वृषकं कुरुध्वं, सकलसुखसमुद्र यत्नसो योगशुरषा ॥९८||
समा अनन्तगुणों से सुशोभित मुनि, केवली तथा तीर्थकरों को उनके गुरण प्राप्त करने के लिये शिर से नमस्कार करता था ॥१०॥ वह बुद्धिमान, कर्मक्षय के लिये निरन्तर मष्टमी और चतुर्दशी के दिन राज्यादि का प्रारम्भ छोड़कर प्रोषध करता था ॥१॥ वह सवा मुक्ति प्राप्त करने के लिये तीनों काल मुनिराज के समान होकर निर्दोष तथा सुख के सागरभूत सामायिक को हर्ष पूर्वक करता था ॥२॥ इत्यादि शुभ को खान स्वरूप नाना प्रकार के श्रेष्ठ माचरणों, समस्त प्रणवतों, गुणवतों, शिक्षावतों, दान, पूजा, उपवास पादि, जिनभक्ति, इन्द्रिय-निग्रह, गुरु आदि की सेवा तथा मन, वचन, काय को शुद्ध क्रियामों से वह राजा प्रतिदिन मुक्ति प्राप्त के उद्देश्य से विविध प्रकार उत्तम धर्म करता था। उसका बह धर्म स्वर्ग तथा मुक्ति के घर का प्रांगन तथा समस्त सुखों को खान था ॥६३-६५।। धर्म से अर्थ, अर्थ से काम और क्रम से मोक्ष होता है ऐसा मानकर वह राजा सरा धर्म किया करता था ।।६६॥ सामन्त राजा तथा मन्त्री प्रादि जिसकी सेवा करते ये ऐसा वह राजा मानन्द से सदा सुखरूपी सागर में निमग्न रहता हुमा व्यतीत हुए काल को नहीं जानता था ॥७॥ इस प्रकार बह राजा पुण्योदय के कारण राज्य वैभव प्रावि से उत्पन्न क्षणिक तथा अत्यन्त रमणीय दिव्यसुख का उपभोग करता था। हे विद्वज्जन हो ! ऐसा जानकर यत्न पूर्वक त्रियोग की शुद्धि द्वारा समस्त सुखों के सागर स्वरूप एक धर्म को करो ॥६॥
१. प्रोषधं ... कशेति विविध धर्म हृदयासाकारणम् । स्वर्गमुक्तये धूपो विरहसौख्याकरं परम् ।।..