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* सप्तम सर्ग .
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विश्वाच्यं विश्ववन्धं निखिलसुखनिधि नाकसोपानभूतं,
__पापम शर्मया शिवाशिबनकं सारपायेयमुच्चैः । प्रातयं श्रीजिनोक्त कुगतिपथहरं विश्वभूत्येकहेतु,
सेवध्वं सौख्यकामा भनुदिनममलं सर्वष त्रिशुद्धपा ॥१६॥
उपनातिः भवे भवे यः क्षमया सहित्वा चोरोपसर्ग कमठाङ्गिजातम् ।
व्यक्तं स्ववीयं प्रविषाय लोके' शर्माप सारं सुगतौ समीरे ॥१०॥ इति भट्टारक-श्रीसकलकोति-विरचिते श्रीपार्श्वनाथरिने प्रानन्दास्यमहामणसीकभवद्धि वर्णनो नाम सप्तमः सर्गः ।।७।।
प्रहो सुख के इच्छुक जन हो ! जो सब के द्वारा पूज्य है, सब के द्वारा वन्दनीय है, समस्त गुणों का भण्डार है, स्वर्ग का सोपान स्वरूप है, पापों को नष्ट करने वाला है, सुख का सागर है, सिद्धगति का जनक है, घेष्ठ संबल स्वरूप है, प्रातः काल प्यान करने योग्य है, कुत्तियों के मार्ग को हरन करने वाला है समस्त संपदानों का अद्वितीय हेतु है तथा निर्मल है ऐसे श्री जिमोक्त सर्व धर्म की प्रतिदिन त्रियोग की शुद्धि पूर्वक उपासना करो
जिन्होंने भव भव में कमठ के जीव द्वारा किये हुए घोर उपसर्ग को क्षमाभाव से सहन कर प्रात्मबीर्य को प्रकट किया तथा उसके फल स्वरूप लोक में शुभगति सम्बन्धी सुख को प्राप्त किया उन पाश्वनाथ भगवान की मैं स्तुति करता हूँ ॥१०॥
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति विरचित भी पार्श्वनाथ चरित में मानन्द नामक महामण्डलेश्वर की सांसारिक विभूति का वर्णन करने वाला सप्तम सर्ग समाप्त हुमा ॥७॥
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१.बम मुहम पाप प्राप २.
सौमि।