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* ओ पार्श्वनाथ चरित *
पित्रा समर्पितो जैनपाठकस्य सुधीः सुतः । महोत्सवेन धर्मात्मा शुभलग्नादिके सति ॥२६॥
महाप्रज्ञाप्रभावेन विनयेन शुभश्रिया । श्रगमत्सोऽचिरात्पारं सुशास्त्रार्थास्त्रविद्ययोः ॥ ३०॥ ततोऽभात्सोऽमरो वा समासाद्य यौवनं नवम् । सर्वैः स्वाभरणश्चारुलक्षणैः सुक्रियादिभिः ।। ३१ ।। ज्ञानविज्ञानचातुर्य कला दिगुण संचयेः | कान्त्या च तेजसा धर्मदान पूजादिकोद्यमैः ||३२|| अनु तादृग्विषं सूनुं दृष्ट्वा योवनभूषितम् । ज्ञानादिगुणसंपन्न परिणेतुं ददौ पिता ||३३|| विवाहविधिना तस्मै बह्वी राजसुता मुदा । सुखसन्तानवृद्धघणं रूपादिगुणशालिनी ।।३४।। ततः पितुः पदं प्राप्य बहुराज्यादिमाकुलम् । महोत्सवेन पुण्येन चाभिषेकपुरस्सरम् ।। ३५ ।। स्ववशे स्वीकारोच्चैः पौरुषेण नृपाधिप: | लक्ष्मीं बह्वीं महामण्डलीकास्पदकरां वगम् ।। ३६ ।। भुक्तभोगान्स्वरामाभिः सार्द्ध' 'स्वायोदयापितान् । स्वकीयपरिवारेण धर्मकार्यकरोऽपि सन् ।। ३७।। तस्य स्वामिहिताख्योऽस्ति महान्मन्त्री सुधर्मधीः । व्रतशीलगुणोपेतो जिनपूजादितत्परः ॥३८॥ एकदा स बभाषे सद्वचो भूवं प्रति स्वयम् । तवेयं चञ्चला राजलक्ष्मी राज्यादिगोचरा ॥३६॥ कर बहुत भारी उत्सव के साथ जैन गुरु को सौंपा ।। २६-२६|| तीव्र बुद्धि के प्रभाव से, विनय से तथा पुण्य लक्ष्मी से वह शीघ्र ही शास्त्र विद्या तथा शस्त्रविद्या के पार को प्राप्त हो गया ||३०|| तदनन्तर नव यौवन को प्राप्त कर वह अपने समस्त श्राभरणों, सुन्दर लक्षणों, उत्तम क्रियादिकों, ज्ञान विज्ञान सम्बन्धी चातुर्य तथा कला प्रावि गुणों के समूहों, कान्ति, तेज और धर्म, दान, पूजा आदि के उद्यमों से देव के समान सुशोभित होने लगा ।। ३१-३२ ।।
पश्चात् पिता ने उस पुत्र को यौवन से विभूषित तथा ज्ञानादि गुरंगों से संपन देख कर सुख और सन्तति की वृद्धि के हेतु विवाह की विधि पूर्वक विवाहने के लिये उसे रूपादि गुणों से सुशोभित बहुत सी राजपुत्रियां हर्ष पूर्वक दीं । ३३-३४।। तदनन्तर बहुतभारी उत्सव के साथ पुण्योदय से अभिषेक पूर्वक पिता का पद और विस्तृत राज्य को प्राप्त कर राजाधिराज आनन्द ने उत्कृष्ट पुरुषार्थ से महामण्डलेश्वर की प्रतिष्ठा प्राप्त कराने वाली बहुत भारी उत्कृष्ट लक्ष्मी प्रपने वश कर ली ।।३५-३६ ।। वह अपने परिवार के साथ धर्म कार्य करता हुआ भी अपनी स्त्रियों के साथ स्वकीय पुण्योदय से प्राप्त भोगों का उपभोग करता था ||३७|| महामण्डलेश्वर प्रानन्द का एक स्वामिहित नामका महामंत्री था जो धार्मिक बुद्धि का था, व्रत शोलरूप गुणों से सहित था तथा जिन पूजा आदि में
तत्पर रहता था ।। ३८ ।।
एक दिन वह स्वयं राजा से निम्नाङ्कित प्रशस्त वचन बोला- हे राजन् ! प्रापकी १. आत्मपुण्यप्रसाद २. राजलक्ष्मी ० ० ॥