________________
७८ ]
श्री पारवनाथ चरित धर्मानास्त्यपर: पितातिहितद्धर्मस्य मूलं सुदृग्,
धर्मे चित्तमहं दधेऽधहतये हे धर्म ! रक्षेह माम् ।।१०।। पाश्र्यो जन्मजराव्यथामृतिरुजाशान्त्यै जनानां महा
नक्षेहातिशमाय वैख इव यः प्रादुर्गभूषाभुतः । दुःकामज्यरशान्तयेतिदुरितव्याधिक्षयायव स
लोकेऽकारणबन्धुरेव मम भूयाज्जन्मव्युपिछत्तये ।।१७।। इति भट्टारक श्री सकलकीतिविरचिते श्रीपार्श्वनाथ चरितेऽहमिन्द्रसुखभिल्लनारकदुःखपर्णनो नाम षष्ठः सर्ग: ।।६।।
करने के लिये मैं धर्म को नमस्कार करता है, धर्म से बढ़कर प्रत्यन्त हितकारी दूसरा पिता नहीं है, धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है, मैं पापों का नाश करने के लिये धर्म में अपना चित्त धारण करता हूँ, हे धर्म ! इस जगत् में मेरी रक्षा करो ॥१०६॥
जो मनुष्यों के जन्म-जरा सम्बन्धी कष्ट तथा मृत्युरूपी रोग को शान्त करने और इन्द्रियों की चेष्टा से उत्पन्न दुःखों का शमन करने के लिये प्राश्चर्यकारी महान वैध के समान प्रकट हुए थे, जो दुःखदायक काम ज्वर की शान्ति तथा तोख पापजन्य व्याधियों का क्षय करने के लिये लोक में मानों प्रकारण बन्धु ही थे वे पार्श्वनाथ भगवान हमारे संसार का बिच्छेव करने के लिये हो। भावार्थ-उन पार्श्वनाथ भगवान की कृपा से मैं जन्म मरण के चक्र से बच जाऊं ॥१०॥
___इस प्रकारक भट्टारक श्री सकलकीति द्वारा विरचित श्री पार्श्वनाथ चरित में महमिन्द्र के सुख और भील के नरकगति सम्बन्धी दुःखों का वर्णन करने वाला छठवां सर्ग समाप्त हुमा ॥६॥