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* श्री पाश्र्वनाथ चरित * खड्गधारासमैः पत्रर्वायुना पतितनंगात्' । खण्डिताङ्गोऽ'तबीभत्सोऽस्माद्गतो दुर्गमे गिरी।।१३। तत्र व्याघ्रादिरूपेण पक्षिवेषेण मारकः । प्रारब्धःखादितु सोऽधान्तरास्यैः खरे खः ।।६।। एवं स लभते दुःखं परस्परभवं महत् । यत्र कुत्र महीपृष्ठे तिष्ठन् धोरतरं सदा । ६५|| ये केचिद्द सहा रोगाः कृत्स्नाशमविधायिनः । ते भवन्ति स्वभावेन तद्गात्रेऽतिधृणास्पदे ।।६६।। सर्वाधितोयतोऽसाध्या पिपासा तस्य जायते । बिन्दुमात्र जलं पातु श्रयेन्नासौ कदाचन ॥१७॥ सर्वान्न भक्षणेनिःप्रतीकारः शुत्कवेदनः ।पीडितोऽप्यशितु नासो लभतेऽन्धस्तिलोपमम् । लक्षयोजनमानोऽयःपिण्डः क्षिप्रो हि केनचित् । शीघ्र विखण्डतां याति तत्रोग्रशीतपाततः ||६|| इत्यादिक्षत्रजं दुःखं मानसं कायसंभवम् । परस्परप्रभूतं चाघात् स भुक्त प्रतिक्षणम् ।।१०।। चक्षुरन्मेषमात्रं स सुखं जातु मजेन हि । केवलं सहते तीव्र वेदनां विविधां बलात् ॥११॥ उत्कृष्टरौद्रध्यानाधिष्ठितोह्यशुभदेहभान । कृष्णलेभ्योऽतिभीतात्मा पूर्वपापोदयाद्धितः ।।१०२।। शीत वायु के भय से युक्त तथा समस्त दुःखों की खान स्वरूप शुभ प्रसिपत्र वन में विश्राम के लिये जाता है ॥२॥ परन्तु वायु के कारण वृक्ष से पड़े हुए तलवार की धार के समान पत्रों से उसका शरीर खण्ड खण्ड तथा वीभत्स हो जाता है। वहां से निकल कर वह दुर्गम पहाड़ पर जाता है ॥३॥ वहां भी नारकी व्याघ्रादि के रूप से अथवा पक्षियों के वेष से रौतों, मुखों तथा तीक्ष्ण नखों से उसे खाना प्रारम्भ कर देते हैं ।।६४॥ इस प्रकार वह जहां कहीं पृथिवी पर स्थित होता था वहीं सदा परस्पर में उत्पन्न बहुत भारी भयंकर दुःख को प्राप्त होता पा |||
समस्त दुःखों को उत्पन्न करने वाले जो कुछ भी दुःसह-कठिन रोग हैं वे सव स्वभाव से ही उसके प्रत्यन्त घृरिणत शारीर में विद्यमान थे ।।१६।। उसे समस्त समुद्रों के जल से प्रसाध्य प्यास लगती थी परन्तु वह पीने के लिये विन्दुमात्र जल भी कभी नहीं प्राप्त करता था ॥७॥ समस्त अन्न के खाने से भी जिसका प्रतिकार नहीं हो सकता ऐसी सुधा की वेदना से वह यद्यपि पीडित था तो भी खाने के लिये यह तिल के बराबर भी पन्न नहीं प्राप्त करता था ।।८।।
एक लाख योजन प्रमारण लोहे का पिण्ड यदि किसी के द्वारा डाला जाता है तो बह वहां तीक्ष्ण शीत के पड़ने से शीघ्र ही खण्ड खण्ड हो जाता था ।।९।। इस प्रकार पापोग्य से वह क्षेत्रजन्य, मानसिक, शारीरिक तथा परस्पर उत्पन्न हुए दुःख को प्रतिक्षण भोगता था ॥१०॥ बह चक्षु के टिमकार मात्र समय के लिये भी कदाचित् सुख को प्राप्त नहीं होता था, केवल बलपूर्वक विविध प्रकार की तीव्र वेदना सहन करता था ।१०१।
१. मात् २. मुखैः ३. भोजनम् ।