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* श्रो पार्श्वनाथ चरित - तइत्याजितपापौघोदयेनात्रभवं' महत् । इदं दुःखवजं सर्व मन्ये वाचामगोचरम् ।।७२।। ग्रहो ये मुनिनाथानां कुर्वन्त्युपद्रव शठा: । साक्रन्दं तेऽभारेण पतन्ति नरकार्णवे ॥७३।। शन्ति ये मुनीन्मूढा निन्द्याः स्युस्ते भवे भवे । मानिनोन नमन्त्यत्र ये मातङ्गा भवन्ति ते ।।७४।। अहो नीचकुलोत्पन्नदोषेण न कृतं मया । किञ्चित्पुण्यार्जनं जातु व्रतदानादिपूजनः ।।७५।। निरन्तरं कृतं पापं कृत्स्नमा वद्यकर्मणा । तत्पानात्र मे जातं जाम दुःस्वाधिमध्यगम् ।।७६ ।। इत्यादिस्मर्यमाणानि प्राक्कर्मचरितान्यहो । कृन्तन्ति मेऽखिलाङ्गानि कचानीव सन्ततम् ।।७७॥ प्रतोऽह क्व बजाम्यस्मारिक करोमि वदामि किम् । कं प्रच्छामीह गच्छामि शरणं कस्य सम्प्रति ।।७।। कथं तमि दुःखाब्धि मिमं दुष्कर्मसंभवम् । क्षिप्तं मे मूनि देवेन यावन्नात्रायुषः क्षयः ।।७६।। इति चिन्ताग्निना दग्धसर्वाङ्गो दीनमानसः । अशरण्योऽतिभीतात्मा यावदास्ते स नारकः ।।८।। तावदागत्य निर्भत्स्यं दुर्वा मर्क: पला । नारर नूतनं तं नारक संपीडयन्त्यष्टो ।।१।।
पाप प्रणाशक और निरपराध मुनि को मैंने वन में वध बन्धन प्रादि के द्वारा मारा था ॥७१॥ उन्हीं की हत्या से उपाजित पाप समूह के उदय से यहां होने वाला यह बहुतभारी वधनागोचर दुःख का समूह मुझे प्राप्त हुपा है ऐसा मानता हूँ ॥७२॥ ग्रहो ! जो मूर्ख मुनिराजों को उपद्रव करते हैं वे पाप के भार से रोते हुए नरकरूपी सागर में पड़ते हैं ॥७३॥ जो मूड मुनियों को गाली देते हैं वे भव भव में निन्ध होते हैं । जो मानी इस जगत में उन्हें नमस्कार नहीं करते हैं वे चाण्डाल होते हैं ॥७४।। अहो ! नीच कुल में उत्पन्न होने के दोष से मैंने कभी भी प्रत, वान तथा पूजन के द्वारा कुछ भी पुण्य का संचय नहीं किया ॥७५॥ समस्त सावध-पाप सहित कार्यों के द्वारा मैंने निरन्तर पाप किया था उसी के उदय से मेरा यहां दुःखरूपी सागर के बीच में जन्म हुना है ॥७६।। ग्रहो ! पूर्व भव में किये हुए अपने कार्यों का जब स्मरण होता है तब वे निरन्तर करोत के समान समस्त प्रक्षों को छेदते हैं ॥७७॥ अब मैं यहां से कहां जाऊ ? क्या करू ? क्या कहूँ ? किससे पूछ और इस समय यहां किसकी शरण में जा ? ||७८। जब तक प्रायु का क्षय नहीं होता है तब तक के लिये देव के द्वारा अपने शिर पर गिराये हुए इस दुष्कर्मजन्य दुःखरूपी सागर को कैसे तरू' ? ॥७२।। इस प्रकार की चिन्तारूपी अग्नि से जिसका सर्व शरीर जल गया था, जिसका मन अत्यन्त दोन भा, जो शरण रहित था, जिसकी प्रात्मा अत्यन्त भयभीत थी ऐसा वह नारकी ज्योंही वहां बैठा त्योंही दुष्ट नारको प्राकर उस नवीन नारकी को तोरण दुर्घचनों से डांटकर पीडित करने लगे ।।८०-८१॥
--.. -- - --- -- -- .. .-- .. १. अत्रोत्पन्न २. चापानाः ।