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* षष्ठ सर्ग इत्यादिचिन्तनात्तस्य विभङ्गावधिराशु हि । प्रादुर्बभूव तुच्छप्राग्भववरादि सूचकः ॥६॥ तेन स्वं पतितं ज्ञात्वा दुरन्ते स्वभ्रसागरे । पश्चात्तापाग्निना दग्धमना इति स चिन्तयेत् ॥६१। ग्रहो हृता मयाने कजीवराशिर्वनोद्भवा । निरपराधिनी मयंमृगादिप्रमुखा मुदा ॥२॥ प्रालीक वचनं निन्द्य परपीडाकरं वृथा । सपापं कटुकं क्रूरं भाषितं 'शपनादिकृत् ॥६३।। परवाहनधस्तूनि धान्यश्रयाभरणानि च । चौर्यातीवप्रपञ्चेन गृहीतानि बलान्मया 11६४।। सेविता पररामा च वेश्या समान्धचेतसा ।महान परिग्रहोऽत्यन्तं लोभनस्तेन मेलितः ।।६।। मद्यमांसमधून्येव कन्दमूलानि संततम् ।प्रच्छानकानि जिह्वालम्पटेन भक्षितानि च ॥६६।। खादितान्यत्य खाद्यानि बहुकीट फलानि च । सचित्तादीनि रात्री संकृतं भोजनमेव हि ॥६७: ग्रामारण्यपुराण्येव मया दग्धानि पापिना । पीरितो बहुधा लोको बराको धनलोभतः ॥६॥ इत्यादिकुत्सितंनिन्ध': कर्मभिः प्राग्भवे मया । यजितं महत्पापं स्वस्य धातकरं परम् ।।६।। नल्पा के नात्र मे जातं संभत्रं श्वभ्रभूतले । प्रक्षिप्ता वेदना तोबा मम मूर्धिन दुरुत्तरा1०॥ हती वा वधबन्धाय मुनीन्द्रस्त्रिजगद्धितः । त्यक्तदोषोऽयहन्ता निरपराधो मया बने ॥७॥ से उसे शीघ्र ही पूर्वभव सम्बन्धी तुच्छ वर प्रादि को सूचित करने वाला बिभक्षावधि ज्ञान प्रकट हो गया ॥५८-६०॥ उस विभङ्गावधि ज्ञान के द्वारा अपने पापको दुःखवायक नरकरूपी सागर में पड़ा जानकर वह पश्चात्तापरूपी अग्नि से दाधचित्त होता हुमा इस प्रकार विचार करने लगा ।।६१।। महो ! मैंने वनमें उत्पन्न हुए मनुष्य तथा मृग प्रादि अनेक निरपराध जीवों को हर्ष पूर्वक मारा था ॥६२॥ दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाले निन्थ, निरर्थक, पाप सहित, कटुक, कठोर और आक्रोश प्रादि को उत्पन्न करने वाले असत्य वचन कहे थे॥६३।। मैंने चौरी के अत्यधिक प्रपञ्च से दूसरों के वाहन, धान्य, लक्ष्मी तथा प्राभूषणादि को बलपूर्वक प्रहरण किया ॥६४॥ राग से अन्धचित्त होकर मैंने परस्त्री और वेश्या का सेवन किया था तथा अत्यधिक लोभ से प्रस्त होकर बहुत भारी परिग्रह इकट्ठा किया था ॥६५॥ जिह्वा का लालची होकर मैंने निरन्तर मद्य, मांस, मष, कन्दमूल तथा प्रचार, मुरखा प्रादि खाये थे ॥६६॥ न खाने योग्य बहुत कोड़ों से युक्त फल सचित्त प्रादि वस्तुएं तथा रात्रि में धना भोजन मैंने खाया था ॥६७।। मुझ पापी ने ग्राम जङ्गल तथा नगरों को जलाया था तथा धन के लोभ से बीन हीन लोगों को बहस प्रकार से पीडित किया था ॥६८॥ इत्यादि निन्दनीय खोटे कार्यों से मैंने पूर्वभव में अपने प्रापका घात करने वाला जो बहुत भारी पाप अजित किया था उसी के उदय से मेरा इस नरक भूमि में जन्म हुआ है । उसी पाप से मेरे मस्तक पर यह तीव्र वेदना पा पड़ी है जिसका उतारना कठिन है ॥६९-७०॥ अथवा तीनों जगत् का हित करने वाले, निकोष,
१. शासनाधिकृत ख. २. "प्रथाना" इति हिन्द्यां प्रमिद्धानि ३. जम्म, संबल क, शंबल ल ।