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* षष्ठ सर्ग *
केचिन्मुद्गरपातश्च चूर्णयन्त्यास्मि संचयम् । उत्पाटयन्ति नेत्राणि केचिरोदयान्मुदा ॥२॥ त्रोटयन्त्यपरे करा दन्तौघेरान्त्रमालिकाम् । निःपीडयन्ति यन्त्रेषु खण्डं खण्ड विधाय च ।।३।। केचित्तदङ्गखण्डानि दलन्ति विषमोपस: : पाल्मल. गिन्ति माहिता पम् ।।४।। केचिद् दुष्टाः करः पादः कुम्भीषु क्वाथयन्ति च । द्विधा कुर्वन्ति तं केचिन्मस्तकान् क्रकचेन हि ।।८।। मद्यपानाघपाकेब केचिद्विदार्य तन्मुखम् । संदशः प्रक्षिपन्ति प्रज्वलन्ति ताम्रजं रसम् ॥६६॥ मांसभक्षरजाघेन' तदङ्गसंभवं पलम् । खादन्ति नारकाः कृत्वा खण्ड खण्डं तिलोपमम् ।७। परस्त्रीसङ्गपापेन तप्तलोहाङ्गनाप्रजः । तस्यालिङ्गनमेवाहो कारयन्ति बलाश्च ते ।।८।। तस्मात्केचित्समागत्योत्थाप्य नीत्वाशु नारकाः । क्षिन्ति दुःखतप्तं तं तप्ततेलकटाहके तेन दग्धाखिलाङ्गोऽसौ तीवदाहकरालितः । गत्वा शमाय संमग्नो वैतरण्या जलेऽतुभे ॥१०॥ क्षारदुर्गन्धवीभत्स-शोणिताभसमेन सः । तन्नी रेणातितीव्रण तरां संतापितोऽप्यगाव असिपत्रवने घोरे शीतवातभयाकुले । विश्रपाय स दोनात्मा विश्वदुःखाकरेऽशुभे ॥१२॥
कोई मुद्गर के प्रहारों से हड्डियों के समूह को चूर चूर कर रहे थे, कोई घर के कारण हर्ष पूर्वक नेत्र उपाड़ रहे थे ।।८२॥ कोई दुष्ट दांतों के समूह से प्रांतों की पंक्ति को तोड़ रहे थे और कोई खण्ड खण्ड कर यन्त्रों में पेल रहे थे ॥५३॥ कोई विषम पत्थरों से उसके शरीर सम्बन्धो टुकड़ों को खण्डित करते थे, कोई पैर पकड़ कर शीघ्र ही सेमर के वृक्षों पर घसीटते थे ॥४॥ कोई दुष्ट नारकी हाथों और पैरों के द्वारा उसे बड़े बड़े कलशों में खोलाते थे, कोई करोत के द्वारा उसके मस्तक से दो टूक करते थे प्रर्याद शिर
और धड़ को अलग अलग करते थे ।।५।। कोई मदिरापान सम्बन्धी पाप के उदय से संडासियों से उसका मुख फाड़कर उसमें जलता हुमा ताम्बे का रस डालते थे ।।६।। कोई नारकी मांसभक्षरण से उत्पन्न पाप के कारण उसके शरीर सम्बन्धी मांस को तिल तिल के बराबर खण्ड खण्ड कर खाते थे ॥७॥ कोई परस्त्री के संगम से उत्पन्न पाप के कारण संतप्त लोहे की पुतलियों से उसका बलपूर्वक प्रालिङ्गन कराते थे । उसी पाप के कारण कोई नारकी प्राकर तथा शीघ्र ही उठा ले जाकर दुःखों से संतप्त उस नवीन नारकी को तपे हुए तेल के कड़ाहे में डाल देते थे ।।९-१०।। उस गर्म तेल से जिसका समस्त शरीर दग्ध हो गया है तथा जो तीन दाह से चीख रहा है ऐसा वह नारको शान्ति प्राप्त करने के लिये जाकर वैतरणी नदी के प्रशुभ जल में निमग्न होता है-डुबकी लगाता है ॥६१।। परन्तु खारे, दुर्गन्धित, घृणित और रक्त के समान प्राभावाले अत्यन्त लोरण जल से वह अत्यधिक संतापित होकर वहां से भागता है ।।६२॥ वह दोनात्मा, भयंकर,
१. मासभक्षण समुत्पन्न पापेन ।
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