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. षष्ठ सर्ग
सप्तविंशतिवाराशिमध्यमायुः कुदुःखभाक् । सर्वासातमये तत्रास्ते मग्नः पदभ्रवारिधी' ।।१०३।।
शार्दूलविक्रीडितम एवं स्वाविपाकत पनिदिनं भुक्त व्यतीतोपर्य
- दुःखं रौद्रतरं प्रतिक्षणभवं वाचातिगं नारकः । मत्त्वेतीह बुधाः कुदुर्गतिकरं प्रारणात्ययेऽत्राशुभं
___ मा कुर्वीध्वमनन्तदुःखजनक सकारणे: कोटिभिः ।।१४।। धर्म स्वगंगृहाङ्गणं ज्यघहरं' मुक्त्यङ्गनादायिनं,
__ ह्यन्तातीत सुखावं सुविमनं संवाञ्छितार्थप्रटम् । सर्वधीपितरं अनन्सगुणदं तीर्थेशभूतिप्रदं,
चक्र शेन्द्रपदादिदं बुधजना यत्नाद्भजध्वं सदा ।।१०।। धर्मः श्रीजिनभूतिदोऽसुखहरो धर्म व्यधुर्धामिका
धर्मर्णव किलाप्यतेऽखिलसुखं धर्माम सिद्धय नमः ।
वह पूर्व पाप के उदय से उस्कृष्ट रौद्रध्यान से युक्त था, अशुभ शरीर का धारक था, कृष्ण लेश्या वाला था तथा अत्यन्त भयभीत था ।।१०२॥ जिसकी सत्ताईस सागर की मध्यम प्रायु श्री तथा ओ खोटे दुःखों को प्राप्त था, ऐसा वह नारकी समस्त दुःखों से तग्मय नरक रूपी समुद्र में निमग्न था ।।१०३॥
इस प्रकार वह नारको अपने पाप के उदय से प्रतिविम अनुपम, अत्यन्त भयंकर, क्षण क्षरण में होने वाले बचनागोचर दुःख को भोग रहा था। ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो! प्रागविनाश का अवसर प्राने तथा करोड़ों कारण मिलने पर भी इस लोक में अत्यन्त दुर्गति के कारण स्वरूप प्रऔर अनन्त दुःखों को उत्पन्न करने वाले प्रशुभोपयोग को मत करो ॥१०४॥ जो स्वर्गरूपी घर का प्रांगन है, विविध प्रकार के पारों को हरने वाला है, मुक्तिरूपी स्त्री को देने वाला है, अनन्त सुख का सागर है, अत्यन्त निर्मल है, अभिलषित पदार्थों का दाता है, समस्त लक्ष्मियों का पिता है, अनन्तगुणों को देने वाला है, लोयंकर को विभूति का दायक है, और चक्रवर्ती तथा इन्द्र के पद प्रादि को प्रदान करने वाला है ऐसे धर्म का हे विद्वज्जन हो ! सदा यत्नपूर्वक सेयन करो ॥१०५॥ धर्म श्री जिनेन्द्र देव को विभूति-प्रष्ट प्रातिहार्य रूप ऐश्वर्य को देने वाला तथा दुःखों को हरने वाला है, धर्मात्मा जन धर्म को करते हैं, धर्म से ही समस्त सुख प्राप्त होता है, सिद्धि प्राप्त
१. नरकममुद्रे २ विविधपापहरं ।