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* चतुर्थ सर्ग*
[ ४५ पित्रोः कुर्वन्मुदं मुग्धहस्यमन्मनभाषणः । कौमारत्वं कमादाप स्वस्य योग्याशनादिभिः ।।४६।। स्वजमानां च भृत्यानां स्वानन्दं बर्द्ध यस्त राम् । कान्त्या दोप्ल्या विवेकादिगुणर्वीयमहोद्यमैः ।। ५०।। रूपलावण्यसौभाग्यलक्षणः पुण्यपाकजैः ।कुमारोऽभातरां सोऽमुर 'कुमार इवा तः ।।५१ । विधाय पूजनमहोत्सवं च जिनमन्दिरे । देवशास्त्रमुनीन्द्राणां समूहूर्ते प्रियात्मजम् ।।५।। पिता समर्पयामास जैनस्य पाठकस्य च । शास्त्रार्थास्त्रसुविद्याकलाविवेकादिसिद्धये ॥५३।। विनयेन श्रिया बुद्धधा स्वल्पकालेन सोऽगमत् । पारं धीमान् सुसिद्धान्तास्त्रिविद्याकलाम्बुधेः ।।५४।। ततो यौवनमासाय नीतिमार्गविशारदः । जिन भक्तः सदाचारी व्रती शीलालय: पर: ।।५५।। सुस्वरः सुभगो वाग्मी रूपेण जितमन्मथः । स्वजनापरमयानां प्रियोऽने कगुणाकरः ।।६।। जिनेन्द्राणां गुरूणां च पूजासेवापरायणः । दानशील: कुमारोऽसौ जिनशासन वत्सलः १५७।। कार्याकार्यविचारशो बभी शक इवापरः । विस्त्राभरणग्वस्त्रंदिव्यलक्षण संचयः ।।५।। तयाविधं तमालोक्य रूपयौवन शालिनम् । विवाहविधिनानेक महोत्सवशतः परः ।।५।। मनोहर हास्य और तोतली बोली के द्वारा माता पिता के हर्ष को उत्पन्न करता हुमा यह बालक अपने योग्य भोजन आदि से क्रमशः कुमार अवस्था को प्राप्त हुपा ॥४६॥ कुटुम्बी जनों तथा भृत्य वर्ग के हर्ष को बढ़ाता हुमा यह विस्मयकारी कुमार कान्ति, दीप्ति, विवे. कादि गुरगों, शक्ति, साहस तथा पुण्योश्य से उत्पन्न होने वाले रूप लावण्य और सौभाग्य सूचक लक्षणों से असुर कुमार के समान प्रत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।।५०-५१।।
तदनन्तर पिता ने शुभ मुहूर्त में जिन मन्दिर में देव शास्त्र तथा गुरु का पूजन महोत्सक कर पागम, अर्थशास्त्र, शस्त्रविद्या, कला और विवेक प्रादि की सिद्धि के अर्थ प्रियपुत्र को जैन अध्यापक के लिये सौप दिया ॥५२-५३॥ वह बुद्धिमान पुत्र अल्पकाल में ही विनय, लक्ष्मी और बुद्धि के द्वारा सिद्धान्तशास्त्र, अर्थशास्त्र, शस्त्रविधा और कलारूप समुद्र के पार को प्राप्त हो गया ।। ५४।।
पश्चात् जो नीति मार्ग में निपुण है, जिनभक्त है, सदाचारी है, व्रती है, शील का उत्तम सवन है, सुन्दर स्वर वाला है, सुभग है, प्रशस्त वचन बोलने वाला है, रूप से जिसने काम को जीत लिया है, जो स्थजन और परजनों को प्रिय है, अनेक गुणों की खान है, जिनेन्द्र और गुरुत्रों की पूजा तथा सेवा में तत्पर है, दानशील है, जिन शासन का स्नेही है, और कार्य प्रकार्य के विचार को जानता है ऐसा वह कुमार यौवन अवस्था प्राप्त कर समस्त प्राभरग, माला, वस्त्र तथा विध्य लक्षणों के समूह से दूसरे इन्द्र के समान सुशोभित होने लगा ॥५५-५८॥ पुत्र को उस प्रकार रूप और यौबन से सुशोभित देखकर पिता ने १. सुरमर्ता इमाद्भूतःह. २. विधिना तंग कर।