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* श्री पारर्वनाम चरित . मुगन्धमिर्मस्तोयहमभृङ्गारनिर्गते. । 'विश्वाघौघहरैदिव्य नावणे विलेपनः ।। मुक्ताफलमयरक्षतपुजः कल्पशाखिजः । कुसुमैश्च सुधापिण्डनवेस्तृप्तिका रकः ॥१०॥ रहतादामहापः फल: मल्लतल्यः । कुसुमाञ्जलिभिश्चूर्णदिव्यैः पुण्यपितामहै. ॥११॥ मनोहरगिरा तेषां व्यधात्संस्तवनं परम् । तद्गुणोधमहापुण्यकरं धर्मरमालितः ॥१.। तस्मात्स्वस्थानमागल्याने कढिमहिमाकुलम् । स्थीचकार विभूति स्वां स्वसजर्मोदयापिताम् ।।१।। त्रिलोकस्यजिनागारेषु भक्त्या नमत्यन्वहम् । समस्ता जिनमूर्तीः शिरसा तत्रस्थ एव सः ।।१४।। कल्याणेषु नमस्कारं विनयेन व्यधात्सदा । उत्तमाङ्गेन' तीर्थेशी स्थानस्थोऽसौ मुदामरः ॥१५॥ केवलज्ञानिनां ज्ञाननिर्वाणसमयेऽनिशम् । प्रणामं मोऽमराधीशोऽकरोत्तद्गुणसिद्धये ।।१६।। पनाहूतागतंर्गोष्ठीमहमिन्द्रः समं क्वचित् । रत्नत्रयभवा घमंकरां कुर्यात्स मृक्तये ।।१७।। क्वचिनिनगुणोद्ध ता कथां च धर्मसंभवाम् । परस्परं प्रकुर्वन्ति तेऽहमिन्द्रा: शुभाप्तये ।।१८।।
लिये समस्त प्रभ्युदयों को करने वाली जिनेन्द्र भगवान की महामह नामकी उत्कृष्ट पूजा की ।।८।। सुवर्ण की भारी से निकले हुए निर्मल तथा सुगन्धित जल से, समस्त पाप समूह को हरने वाले नाना प्रकार के विख्य विलेपनों से, मोतियों के प्रक्षत समूह से, कल्पवृक्षों से उत्पन्न पुष्पों से, तृप्ति करने वाले प्रमृत पिण्ड के नैवेद्यों से, रत्नमय बोपों से महाभूप से, कल्पवृक्षों से उत्पन्न फलों से, पुष्पाञ्जलियों से तथा पुण्य के बाबा ( पितामह ) के समान दिव्य पूणों से पूजा की ॥६-१॥ धर्मरुपी रस से युक्त उस प्रहमिन्द्र में मनोहर पाणी के द्वारा उन जिन प्रतिमानों का उत्कृष्ट स्तवन किया। उनका बह सवन, भगवान के गुण समूह से महान पुण्य को उत्पन्न करने वाला है ॥१२॥
जिन मन्दिर से, अनेक ऋड़ियों की महिमा से युक्त अपने स्थान पर माकर उसने स्वकीय सतर्म के उदय से प्राप्त विमूत्ति को स्वीकृत किया ॥१३॥ वह अपने स्थान पर स्थित रहता हा ही प्रतिदिन त्रिलोकवती जिन मन्दिरों में विद्यमान समस्त जिन प्रतिमानों को भक्ति पूर्वक शिर से नमस्कार करता था ॥१४॥ अपने स्थान पर स्थित रहने वाला वह अहमिन्द्र तीर्थंकरों के कल्याणकों में विनयपूर्वक बड़े हर्ष से उन्हें मस्तक झुका कर सदा नमस्कार करता था ॥१५॥ वह महमिन्द्र केबलमानियों के ज्ञान तथा निर्धारण के समय उनके गुर्गों की सिद्धि के लिये निरन्तर प्रणाम करता था ॥१६॥ वह कहीं विना बुलाये पाये हुए अहमिन्द्रों के साथ रस्नत्रय से उत्पन्न तथा धर्म को करने वाली गोष्ठी तस्वचर्चा मुक्ति प्राप्ति के लिये करता था ॥१७॥ वे अहमिन्द्र कहीं शुभ की प्राप्ति के
१. सर्वपापसमूहापहारक. २. शिरसा ।