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* षष्ठ सर्ग . इत्यादि विविधं पुण्यं प्रत्यहं सोऽजयेन्महत् 1 सुपुण्याचरण: पुष्यं तत्त्ववित्स स्वसिद्धये ।।१९।। मणिज्योत्स्नातध्वान्ते विमाने रश्मिसंतुले । उक्त ङ्गं बने दो नीलाद्रय पवादिषु ॥२०॥ महमिन्द्रं नम क्रीडा वितनोति सुदुर्लभाम् । अपुण्यानां मृदा नित्यं विहारजल्पनादिभिः ।।२१।। स्वस्थानेऽनध्यंभूत्याड निसर्गसुखदायिनि । य रतिर्जायते तेषां न सा कुत्रापि शमंदा ।।२२।। तत: स्थान निज मुक्त्वा सर्बतुं सौख्यदायनम् । विद्यते गमनं तेषां न जातु परधामनि ॥२३।। अहमिन्द्रोऽस्म्यहं कोऽपि मत्त इन्द्रोऽपरोऽस्ति न । इति मंकल्पयोगेन ते भजन्ते सुखं हृदि ॥२४॥ शुद्धस्फटिकवनि विमानयत्र केवलम्' । योजनानामसंख्येतरविस्तीर्णानि सन्त्यत्रो ॥२५।। प्रामादा यत्र प्रोत्त ङ्गा रत्न रश्मिसमाकुला: । विश्व वस्तुनिधाना वा ह्यमिन्द्र भृता बभुः ।।२६।। शुद्धस्फाटिकभित्तीनां रश्मयः कुर्वते सदा । दिनश्रियं हतध्वान्ता नेत्रशर्मक गः परा: ॥२७॥ जयनन्दादियदोघः स्तुतिस्तोत्ररवोत्करैः । जिनमूनिवदिव्य गीतंधिश्च नननेः ।२।।
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लिये जिनेन्द्र भगवान के गुणों से उत्पन्न धर्म कथा को करते थे ।।१८। इस प्रकार तत्त्वों को जानने वाला वह ग्रहमिन्द्र, प्रात्म-सिद्धि के लिये श्रेष्ठ पुण्य के प्राचरण से पवित्र नाना प्रकार के बहुत भारी पुण्य का उपार्जन करता था ।।१६।।
मणियों की चांदनी से जिसका अन्धकार नष्ट हो गया है, तथा जो किरणों से जगमगा रहा है ऐसे विमान में, देदीप्यमान ऊचे भवन में, कोडागिरि तथा उपवन आदि में यह अहमिन्द्रों के साथ अत्यन्त दुर्लभ क्रीड़ा करता था । कभी अपने से अल्पपुण्य के धारक देवों के साथ हर्ष पूर्वक वार्तालाप आदि की क्रीडाओं से समय व्यतीत करता था ।१२०-२१।। अमूल्य श्रेष्ठतम विभूति से युक्त तथा स्वभाव से सुखदायक अपने स्थान में उन अहमिन्द्रों की जो सुख देने वाली प्रीति होती है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं होती। इस लिये समस्त ऋतुओं में सुखदायक अपने स्थान को छोड़कर उनका दूसरे स्थान पर कभी गमन नहीं होता है ॥२२-२३॥ मैं स्वयं इन्द्र हूँ, मुझ से अतिरिक्त कोई भी इन्द्र नहीं है इस संकल्प के योग से के हृदय में सुख को प्राप्त होते हैं ॥२४॥ यहां केवल शुद्ध स्फटिक के वर्ण वाले प्रसंख्यात योजन विस्तृत विमान हैं ॥२५।। जहां रनों की किरणों से व्याप्त तथा अहमिन्द्रों से भरे हुए ऊचे ऊचे महल, समस्त वस्तुओं के भाण्डार के समान सुशोभित हो रहे हैं ।।२६। जहां शुद्धस्फटिक की दीवालों को तिमिर बिनाशक तथा नयन मुखकारी श्रेष्ठ किरणें सदा दिन की लक्ष्मी को प्रकट करती रहती हैं ॥२७।। जहां के जिनालय, जय, नन्द प्रादि शब्दों के समूह से, स्तुति और स्तोत्रों के समूह से, जिन प्रतिमानों के समूह से, दिध्य गीतों से वाद्यों से, नृत्यों से तथा श्रेष्ठ रत्नों के उपकरणों से ऐसे सुशोभित
१. भात्यहा
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