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* श्री पार्श्वनाथ चरित
रत्नोपकरणं सारविभ्राजन्ते जिनालयाः । चैत्यवृक्षा महोतङ्गा इव धर्माब्धयः पराः ॥२३॥ दिव्यभूषणदीप्ताङ्गाः सप्तधातुमलातिगाः । दिव्यस्रग्वस्त्रशोभाढयाश्चारुलक्षणलक्षिताः ॥३०॥ भोगोपभोगा हि साहयद्भिविराजिता: समानविक्रियद्धिज्ञानविज्ञानकलान्विताः ॥३१॥ सर्व समानचातुर्य विवेकादिगुणाङ्किताः हीनाधिकपदातिगाः
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| सर्वे सन्निभदीप्ति श्रीधामशोभा महर्द्धिकाः १०३२||
सर्व समपदारूढा
श्रप्रियप्रियसंयोगवियोगादिविवर्जिताः
| समसन्मानदानाः सुसाहव्य सुखभोगितः
॥३३॥
| समप्रथम संस्थानाः समवीर्यबलान्विताः ॥३४॥
परस्परमहास्नेहा
गवरबन्धनाः
| मायाक्रोधमदातीता जिनपूजापरायणाः ।। ३५ ।।
समान वृत्तपाकेन तेऽहमिन्द्राः शुभाषायाः | उत्पद्यन्तेऽत्र धर्मादधाः सर्वाशर्मातिगा विदः ||३६|| कामदाहा तिगास्तेऽहमिन्द्रा दिव्यं सुखं महत् । अप्रवीचारजं यद्धि स्त्रीसङ्गादिपराङ्मुखम् ||३७|| लभन्ते तदसंख्यातभागं च नाकिनः क्वचित् । न कामदाहसंतप्ताः स्त्रीसेवालिङ्गनादिभिः || ३८ || सप्तमावनपर्यन्तं सोऽहमिन्द्रश्वराचरम् 1 मूतं द्रव्यं विजानाति सर्वं स्वावधियोगतः ||३६|| होते हैं मानों प्रत्यन्त ऊंचे चत्यवृक्ष ही हों अथवा श्रेष्ठ धर्म के सागर ही हों
।। २८-२६ ।।
वहां के सभी अहमिन्द्र दिव्यभूषणों से भूषित शरीरवाले हैं, सप्त धातुओं तथा मल से रहित हैं, दिव्य माला और वस्त्रों की शोभा से युक्त हैं, सुन्दर लक्षणों से सहित हैं, समान भोगोपभोगों से युक्त हैं, एक सदृश ऋद्धियों से सुशोभित है, एक समान विक्रिया ऋद्धि, ज्ञान, विज्ञान तथा कला से सहित हैं, सभी एक समान चातुर्य, तथा विवेक प्रावि गुरणों से युक्त हैं, सभी एक समान दीप्ति, लक्ष्मी, तेज और शोभा से संपन्न हैं, सभी महान् ऋद्धियों के धारक हैं, समान पद पर श्रारूढ हैं, होनाधिक पद से रहित हैं, समान सम्मान और वान से युक्त हैं, अत्यन्त समान सुख को भोगने वाले हैं, अप्रिय संयोग और प्रियवियोग श्रादि से रहित हैं, सभी एक समान समचतुरस्त्र संस्थान से युक्त है, समान बीर्य और बल से सहित हैं, परस्पर महा स्नेह से युक्त हैं, ईर्ष्या, बेर और बन्धन से रहित हैं, माया, क्रोध और मद से परे हैं, तथा जिनपूजा में तत्पर हैं ।।३०-३५ ॥ समान चारित्र के फल स्वरूप वे ही श्रहमिन्द्र यहां उत्पन्न होते हैं जो शुभभाववाले हैं, धर्म से संपन्न हैं, सब दुःखों से दूर हैं तथा ज्ञानी हैं, ||३६|| काम की दाह से रहित वे अहमिन्द्र यहां प्रवीचार - मैथुन से रहित तथा स्त्री समागम श्रादि से विमुख जिस दिव्य महान् सुख को प्राप्त करते हैं, कामदाह से संतप्त देव स्त्री-सेवन तथा प्रालिङ्गन श्रादि के द्वारा उसका श्रसंख्यातवां भाग भी नहीं प्राप्त करते हैं ।। ३७-३८ ।।
यह श्रहमिन्द्र अपने अवधिज्ञान से सप्तम पृथियो पर्यन्त के चर अचर सभी मूर्तिक
१. समान २ समानममचरण संस्थानयुक्ताः ।